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कोणार्क एक प्रेम मंदिर का काव्यात्मक अन्वेषण / डॉ. नीरज दइया

 साहित्य का इतिहास से अटूट संबंध रहा है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर मार्मिक स्थलों को इंगित करते हुए हिंदी में लगभग सभी विधाओं में रचनात्मक कार्य होता रहा है, होता रहेगा। इसी क्रम में ‘कोणार्क’ नामक प्रसिद्ध नाटक के पश्चात ‘कोणार्क’ नाम से काव्य-कृति डॉ. संजीव कुमार की देखी जा सकती है। इसे एक प्रेम मंदिर के रूप में कवि ने देखने का सुंदर उपक्रम किया है। आमुख से स्पष्ट होता है कि कवि ने कोणार्क की यात्रा दो बार की और वहां के मंदिरों के भग्नावशेषों एवं परिसरों को नजदीक से देखने-समझने का प्रयास भी किया। यही इस कृति का प्रस्थान बिंदु है।

एक शाम

उन्हीं पाषाण शिलाओं के बीच

तलाशता रहा मन

कि वह मूर्तियां

जीवन का मूर्त है

या मूतियां ही जीवन

खोजती रही आंखें

उन भाव भंगिमाओं के बीच

उस शिल्पी की आंखों के

अनबेधे स्वप्न (पृष्ठ : 14)

कवि को इस अप्रतिम शिल्प कला के पीछे लुप्त हो रही भावना, कल्पना, ज्ञान, अनुभव और चिंतन के विषयों में सतत जिज्ञासा रही। अध्ययन के विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारियों को सहेजने और सतत चिंतन का परिणाम है यह कृति। इसमें देखे, सुने और पढ़े गए तथ्यों में कल्पना मिश्रित कर कवि संजीव कुमार ने आत्म संवादत्मक शैली में अंतःकरण के भाव-बिंबों को शब्दबद्ध किया हैं। कवि का मानना है कि 97 भावखंडों में इस संवाद को एक नाटिका के संवाद की भांति लिखने का उनका प्रयास रहा है। जिसमें वे शिल्प एवं इतिहास के प्रसंगों के साथ प्रेम के शास्त्रीय रूपों का विवेचन भी प्रस्तुत करते हैं। हमें देखना यह है कि इस कृति में कविता कहां संभव होती है अथवा वह संभव होती दिखाई देती है।

कितना अगाध होगा

तुम्हारा वह प्रेम

और कितना गहन होगा वह समर्पण

जिसके गीत लिख डाले तुमने

इन भव्य कला कृतियों में

जो अब सूर्य मंदिर कम

और प्रेम का मंदिर

अधिक लगता है। (पृष्ठ : 18)

आज जब साहित्य की विभिन्न विधाओं की सीमा-रेखाओं का विलय हो चुका है, तब भी प्रत्येक विधा की कुछ आवश्यक और अनिवार्य शर्तें शेष है। ‘कोणार्क’ काव्य कृति के संबंध में दो बातें विल्कुल साफ है। पहली तो यह कि यह काव्य कृति कवि का गहनता पूर्वक किए गए अध्ययन का काव्यात्मक अन्वेषण है। दूसरी यह भी कि इसमें जिस प्रकार से कविता को खंड खंड कर के कथाबद्ध अथवा विचारबद्ध प्रस्तुत किया गया है वह अपने आप में नवीन है। इसे एक प्रयोग की संज्ञा दी जा सकती है किंतु निसंदेह यहां यह भी उल्लेखित करना होगा कि कविता को खंडवार जिस प्रकार अंश दर अंश खोजने, सहेजने अथवा बटोरने का प्रयास फलित होता है वह अपने आप में समग्र रूप से तो प्रभावित करता है। यहां हम कवि के साथ अनेक प्रश्नों से मुठभेड़ करते हुए अंत में बेहद मार्मिक प्रसंग तक पहुंच सकते हैं। लंबी कविताओं में जिस प्रकार उसके अनेक अंशों को पृथक अथवा स्वायत रूप से देखने के प्रयास में मर्म को नहीं पाया जा सकता है, वही स्थिति यहां है।

अपनी कुछ सीमाओं के साथ कृति के आरंभ में स्थापत्य कला के सौंदर्य से विमुग्ध कवि-मन हमें प्रभावित करता है। तत्पश्चात कवि के साथ हम स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों से जुड़े विमर्शों में डूबने लगते हैं। पुस्तक कोणार्क के बहाने हमें रोचक ढंग से हमारे जीवन-सिद्धांतों के साथ-साथ शास्त्रीय नायिका भेद आदि को  समझने-समझाने का उपक्रम दिखाई देता हैं। कवि ने कोणार्क वास्तु-दोष को जहां आमुख ने स्पष्ट किया है, वहीं कृति में काव्य-रूपांतर के प्रयास में भी यह सूचना भर प्रतीत होता है। यहां उल्लेखनीय और रेखांकित करने वाली बात कवि के अंतर्मन के विषयगत सवाल हैं। ये सवाल न केवल विशु को वरन हमें भी विचलित करने वाले हैं। कवि संजीव कुमार ने कृति में संयोग के साथ वियोग के अंकन को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किए जाने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है।

यहां प्रेम के गीत

पत्थरों में तो उकेरता रहा

पर अपने कोमल पंखों पर

अपने प्रेम की पलकों पर

धर लिए भारी बोझ

और अपनी कला यात्रा को

ऐसे पड़ाव पर ले आया

जहां केवल एकाकी जीवन के अतिरिक्त

कुछ न हुआ प्राप्त

और यहां तक कि बलिदान हो गई
मेरी वंश बेलि भी।
(पृष्ठ : 36)

असल में कोणार्क का यह काव्य रूपांतरण किसी भी कला में किसी कलाकार के समग्र रूप से डूब जाने के विज्ञान को रेखांकित करता है। यहां विशु को एक ऐसे शिल्पी के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो अपने पुत्र को खोने के बाद जैसे दैहिक चेतना के जागरण द्वार पर पहुंच पाता है। विशु के विलाप में करुणा के साथ अवसाद की मार्मिक अभिव्यक्ति से कोणार्क एक सार्थक काव्य कृति के रूप में हमारे मन-मस्तिष्क को प्रभावित करती है। कृति में निर्माण और विध्वंस का समन्वय प्रभावित करने वाला है। इसके साथ ही यहां यह भी प्रभावशाली रूप से अंकित हुआ है कि विभिन्न कला माध्यमों और प्रतिभा के सिलसिले में आयु का महत्त्व नहीं होता है। साथ ही यहां यह भी प्रतिपादित हो रहा है कि कला माध्यमों में वंशानुगत गुणों का प्रभाव होता है।

कविता के क्षेत्र में डॉ. संजीव कुमार एक जाना पहचाना नाम है। किसी कवि की वरिष्ठता से पाठकों की अपेक्षाएं बढ़ जाती है। निसंदेह ‘कोणार्क’ काव्य कृति हमारी अपेक्षाओं को पूरा करती है किंतु यहां यह विनम्रता पूर्वक कहना होगा कि कविता में अत्यधिक सूचनाओं से संभवतः बचना चाहिए, दूसरे शब्दों में विषयगत ज्ञान कविता के महत्व को बाधित करता है।

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कृति : कोणार्क (काव्य) / कृतिकार : डॉ. संजीव कुमार / प्रकाशक : इंडिया नेटबुक, नोएडा / संस्करण 2019 /

पृष्ठ : 108 / मूल्य : 225/- 

डॉ. नीरज दइया
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