व्यंग्य विधा के राजस्थान से प्रमुख हस्ताक्षर फारूक आफरीदी का प्रथम कविता संग्रह ‘शब्द कभी बांझ नहीं होते’ उनके कवि रूप को प्रतिस्थापित करता है। यह शीर्षक कवि की शब्द के प्रति आशा-आस्था और शब्द की ऊर्वरा-शक्ति को उजागर करता है। संग्रह में इस शीर्षक की कविता को अंत में रखा गया है, जिसकी पंक्तियां हैं- ‘शब्दों की कोख/ संवेदना से भरती है/ जैसे भरती है नदी/ और उफनती बहती है/ समुद्र की ओर’ (पृष्ठ-111) कवि का मानना है कि अनुभूति के आवेग से कविताएं लिखी जाती हैं। कवि के लिए शब्द और संवेदना का संबंध ही रचना का उत्स है। रचना में वह अपनी जीवनानुभूतियां को प्रस्तुत करते हुए जीवन-दृष्टि से रू-ब-रू होने के अवसर देता है। ऐसे में अनेक स्थल पाठकों को सकारात्मक बोध तक ले जाते हैं।
गद्यकारों की कविताओं में बहुधा गद्य कथात्मक रूप से हावी रहता है। फारूख आफरीदी भी इसके अपवाद नहीं है। कहना होगा कि ‘शव्द कभी बांझ नहीं होते’ की कविताएं उनके व्यंग्य-लेखन के समानांतर उनके अनुभवों-अनुभूतियों का संवेदनात्मक कोलाज है। हम यहां उनके घर-संसार में मां, पत्नी, बच्चों, मित्र-मंडली और पूरे समाजिक पर्यावरण के साथ देश की बदलती परिस्थितियों को भी देख-समझ सकते हैं। कवि के सुख-दुख, आशा-निराशा, हर्ष-विशाद हमें अपने-से लगते हैं। संभवतः इसका प्रमुख कारण कवि का जीवन के प्रति अथाह प्रेम है और वह इसे अपने कोण से देखने का पक्षधर है। संग्रह की पहली कविता ‘मेरा हल्फिया बयान’ में कवि उद्घोषणा करता है- ‘बड़ी से बड़ी सजा दो/ हंस कर झेल लूंगा/ लेकिन/ छोड़ूंगा नहीं प्रेम करना।’ (पृष्ठ-14) कवि ने जैसे प्रेम को पक्ष में अपना बयान देकर, सारी कायनात को देखने-सोचने और समझने की एक दिशा बना ली है। प्रेम से रिक्त होते इस संसार में वह सवाल करता है कि ‘सृष्टि का कोई जीव तो बताओ/ जो प्रेम नहीं करता हो?’ (पृष्ठ-14) एक अन्य कविता ‘कबीर अगर तुम न हुए होते’ को भी यहां देखा जाना उचित होगा- ‘कबीर अगर तुम न हुए होते/ धागे प्रेम के कितने टूटे होते/ रंग कितने बिखरे होते/ ढाई आखर अपने पर रोते।’ (पृष्ठ-35)
अविश्वास के रहते जीवन और जगत में प्रेम का स्थान संकुचित होता जा रहा है। संग्रह की कविताएं प्रेम की पुनर्स्थापना के साथ अपना एक विमर्श देती है। हमारे संस्कार और संस्कृति से पोषित गांवों का स्मरण यहां स्वभाविक ही है। बदलते जीवन में ध्वत होते मानव मूल्यों को इन कविताओं में उभारा गया है। कवि कविताओं में लोक की जीत को घोषित करते हुए आदमी की पहचान आदमी को सौंपना चाहता है। आज जब आदमी के भेष में आदमी की पहचान नहीं हो रही है ऐसे में इन कविताओं का महत्त्व बढ़ जाता है। कवि भीमा गडरिया जैसों की व्यथा-कथा जानता है। वह छोटे से लेकर बड़े आदमी तक में परिवर्तन की बयार देखता है। उसे कार्य और व्यवहार की प्रतिकूलता ‘ईमान’ कविता लिखने को प्रेरित करती है- ‘छीन कर ईमान/ कहा था उसने-/ भला कोई साथ लिए फिरता है/ इस तरह।’ (पृष्ठ-17) ऐसे में विकल्प के रूप में अब भी कवि को शब्द की सत्ता पर अटूट आस्था और विश्वास है। बह लिखता है- ‘मित्रों!/ यह मत कहो-/ कविता अब क्रांति नहीं ला सकती/ क्रांति के बीजों/ और अवरोधों से/ उपजती है वह।’ (पृष्ठ-21)
कवि हमें कविताओं में अनेक बिम्बों और प्रतीकों द्वारा जीवन-दृष्टि का बोध करता है। समय सापेक्ष बदलती परिस्थितियों में वह विवेकवान होने का संदेश आरोपित नहीं करता। यह संदेश उसके स्वयं के कार्य, व्यवहार और परिस्थितियों के स्वीकार-अस्वीकार के भावों में निहित है। अनेक स्थलों पर उसके निर्णय हमारे दायित्व-बोध को पोषित करते हैं। राजस्थानी संस्कृति की सूरवीरता का विख्यात दृश्य नवीन शब्दावली में कविता ‘पति से’ में देखा जा सकता है-
‘हरावल दस्ते में हो तुम/ और हारते हुए से!/ यह तो क्षम्य नहीं
चिंता चूड़ियों की/ करो मत/ लड़ो तुम जुझार बनकर
हारना मुझे/ कतई मंजूर नहीं।’ (पृष्ठ-51)
कविताओं की भाषा सहज, सरल और प्रवाहयुक्त है। कवि लूनी नदी और पेड़ों से बतियाता है तो वह समय से भी सीधा संवाद करना जानता है- ‘सुनो समय!/ तुम्हें रोकता-टोकता नहीं/ बस इतना भर चाहता हूं तुमसे/ बच जाएं संवेदनाएं’ कवि संवेदनाओं से प्रेरित-प्रोषित होता है और कविताओं से अपने पाठकों को संवेदित करता है। कविता ‘मैं और वह’ में इन्हीं संवेदनाओं के कारण वह जीवन के पक्ष में अपना निर्णय लेते हुए कला-संगीत में जीवन का उद्देश्य मानता है। ‘मुझे गुस्सा पीना आता/ उसे गुस्से में खून/ उसे प्रिय लगता/ दनदनाती और आग उगलती बंदूकें/ चीत्कारों पर वह झूम उठता/ इधर मैं था/ एकदम दूसरी तरफ/ दूसरे गुर्दे की तरह/ कांप-कांप उठता/ छिटक-छिटक जाता/ पड़ौसी होने का/ धर्म भी कहां निभा पाता।’ (पृष्ठ-62) इन कविताओं में मित्र-धर्म भी अपने स्वच्छ और नैतिक रूप में प्रस्तुत हुआ है, उसमें इतना अवकाश रखा गया है कि कहा जा सके- ‘मैंने सुना और चुना/ फिर दिखाया उसे रास्ता/ बाहर जाने का/ फिर कभी न आने का।’ (पृष्ठ-65)
कविताओं में कवि के सपनों का संसार है जिसको सूर्योदय का इंतजार है। कवि लिखता है- ‘मेरे सपनों का सूरज/ अभी उगा नहीं है/ पर, दिखने लगी है/ उसकी लालिमा/ फिर फूटेंगी किरणें/ मिट जाएगा अंधकार/ सजने लगेगा फिर से/ भरोसे का संसार।’ (पृष्ठ-72) इसी भरोसे से कवि समय का साक्षी बनकर एक सुंदर संसार की कल्पना को बचाए रखने सफल हुआ है। कवि अपनी जमात को संदेश देते हुए कहता है- ‘कवि सुन!/ समय का सच लिख/ समय का सुइया देख रहा है/ गिद्ध दृष्टि से तुझे/ झूठ और पाखंड रचेगा अगर/ बख्सा नहीं जाएगा तू/ रख रही है हिसाब-किताब नई पीढ़ी भी’ यह सगजता और सतर्कता ही शब्द पर आस्था और विश्वास का प्रतिमान है। कवि का विश्वास है कि निश्चय ही नया सवेरा आएगा क्योंकि शब्द कभी बांझ नहीं होते।
कविताओं में गद्य की कथात्मकता के साथ ही नाद को साधने का प्रयास अनेक स्थलों पर देखा जा सकता है। संग्रह की कविताओं में कवि फारूक आफरीदी का कवि-मन अपनी अभिव्यक्ति से एक वितान रचता है। इन कविताओं की अनुगूंज और उपस्थिति लंबे समय तक बनी रहेगी।
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पुस्तक समीक्षा- शब्द कभी बांझ नहीं होते (कविता संग्रह)
कवि : फारूक आफरीदी; प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर; पृष्ठ : 112 मूल्य : 120/-; संस्करण : 2017
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