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जलते मरुथल में दाझे पांवों से / डॉ. नीरज दइया

राजस्थानी कवि के रूप में विख्यात आईदान सिंह भाटी का पहला हिंदी कविता संग्रह ‘जलते मरुथल में दाझे पांवों से’ है, जो उनकी लगभग चार साढ़े चार दशक की साधना का प्रतिफल है। वे अपने राजस्थानी कविता संग्रह ‘आंख हींयै रै हरियल सपना’ के लिए साहित्य अकादेमी मुख्य पुरस्कार, बिहारी पुरस्कार और राजस्थानी अकादमी के सर्वोच्च पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं और इन सब के बाद उनके पहले हिंदी कविता संग्रह से गुजरना अनेक सत्यों से आमने-सामने होने जैसा है। बकौल कवि- ‘कविताएं मूलतः राजस्थानी में ही लिखता रहा हूं, किंतु परिवेशगत दबाबों में लिखी गई इन कविताओं को मैंने अब तक प्रकाशित करने का इसलिए भी मन बनाया, क्योंकि बड़े भाई डॉ. रमाकांत शर्मा ने भी मुझे इस ओर ध्यान देने का आग्रह किया था।’ डॉ. नामवर सिंह के आग्रह पर कवि आईदान सिंह भाटी मातृभाषा में लिखते रहे किंतु साक्षरता आंदोलन के दौरान और मंच के आग्रह पर उन्होंने समय-समय पर हिंदी में कुछ रचनाएं लिखीं। उन्हीं मुक्त छंद और छंदबद्ध रचनाओं का संकलन है उनका यह संग्रह।
    जाहिर है कि हिंदी कविता के कई उतार-चढ़ाव इस संग्रह में दिखाई देते हैं किंतु सबसे उल्लेखनीय आईदान सिंह भाटी की भाषा और शैली है। वे कविता को सजावट का समान अथवा भाषा में गढ़ी पहेलियां नहीं मानते वरन उनके यहां कविता आम जन जीवन का प्रतिबिंब लिए सीधे व्यक्ति और समाज से मुखातिब होती है। ‘माटी के जंगल में, रिशते घावों से/ जलते मरुथल में, दाझे पांवों से,/ मीरां के गीतों संग, सहलाते घावों को,/ सदियां सोयी है, हारे ही हारे,/ हरियाले सपने, नयनों में धारे।’ (माटी के जंगल में, पृ. 44) यहां व्यक्ति और सत्ता का संघर्ष तो है ही साथ आजादी के इतने वर्षों बाद भी एक आम आदमी की लाचारी और बेबसी भी उनकी कविता में अभिव्यक्त हुई है। कॉरपोरेटी और पूंजीवादी जंगल के बीच में किसान और मजदूर वर्ग के दुख-दर्द को स्वर देते हैं। कविता के जनपक्ष की पैरवी करते हुए वे चेतावनी के स्वर में आज के कवि से सीधा सवाल करते हैं- ‘लोग खिलवाड़ कर रहे हैं अपनी भाषा से/ तुम टुकुर-टुकुर खड़े ताक रहे हो/ रच रहे हो तुम प्रहेलिकाएं और वक्रोक्तियां।’ (कवि तुम किसके पक्ष में हो?, पृ. 42) अपनी सभ्यता, परंपरा, भाषा और संस्कारों के सामने पसरता बाजार और आधुनिकता के रंग उन्हें नहीं भाते। वे बनावटी सौंदर्य के पक्ष में नहीं है। आधुनिकता के साजो-सामान बाहरी सौंदर्य को निखार सकते हैं किंतु वे व्यक्ति के सुंदर मन की कामना करते हैं। ‘सौंदर्य खाल में नहीं/ अंतस में बसता है आलीजा।’ (अकाल पर कोई कविता नहीं होती आलीजा!, पृ. 30) ‘आलीजा’ को संबोधित नवीन शैली की उनकी कई कविताएं ध्यान आकर्षित करती हैं।     
    हिंदी कविता के इस कालखंड में प्रचलित काव्य-भाषा से इतर इस संग्रह की काव्य-भाषा है, जो उन्हें अपनी निजी भाषा-शैली के कारण एक अलग पहचान देती है। राजस्थानी मिश्रित शब्दावली में यहां का लोक साकर होता है। डॉ. नामवर सिंह के अनुसार- ‘... आईदान सिंह भाटी की कविताओं में मुझे लोकभाषा के इसी सार्थक व प्रतिरोधी रूप की झलक मिलती है। वे स्थानिकता परंपरा और प्रतिरोध के सौंदर्य बोध के कवि हैं।’ डॉ. रमाकांत शर्मा ने लिखा है- ‘डॉ. भाटी की कविताएं अपने जनवादी तेवर और देशजता के कारण अलग से पहचानी जा सकती है।’ हिंदी की यहां आंचलिकता कहीं खटकने वाली नहीं है। भाषा अपने परिवेश को साकार करती है और कवि अपने परिवेश के हर सवाल से मुठभेड़ करते हुए अपनी कवि जमात तक को नहीं बख्शता। ‘हे कवि! तुम अभी भी खड़े हो/ टुकुर-टुकुर ताकते हुए।/ उन्होंने तो लौटा दिया है अपना सम्मान!/ और तुम नचिकेता की मुद्रा में/ पूछ रहे हो सवाल?/ वाजश्रावाओं ने कर लिया है आरक्षण स्वर्ग में/ पुरस्कार रूपी बूढ़ी गायों का दान करके।’ (हे कवि!, पृ. 38)
    कवि आईदान सिंह भाटी का विश्वास है- ‘आखर फैलाता है उजास/ आदमी होने का।/ सपने संजोने का।’ (जैसे, पृ. 49) उनकी ‘अलख निरंजन’ कविता बाबा नागार्जुन का स्मरण कराती है। ‘अखल निरंजन, अलख निरंजन।/ देज का दंशन। साबुन-मंजन। नून तेल लकड़ी/ रे रिश्वत तगड़ी/ देखो रे देखो रे देखो देखो तमाशा!/ देखो रे देखो रे देखो कविता की भाषा!/ बढती ही जाये रे देखो गांव गरीबी।/ तक कर चलती ज्यों अफसर की बीबी।/ वहीं है विधाता।/ जहां कंपनी का खाता।’ कवि आईदान सिंह भाटी के इस संग्रह में अपने साथी कवि और कवयित्री पर केंद्रित भी कुछ कविताएं हैं। जैसे- ‘नीलकमल की कविताएं पढ़ते हुए’, ‘पद्मजा शर्मा की कविताएं सुनकर’ और ’उडीकते धोरै’। यह संग्रह जनकवि हरीश भादानी को न केवल समर्पित है वरन उन्हें कुछ कविताओं में कवि स्मरण भी करता है। ‘विकल रेत गा रही थी हरीश भादाणी के गीत।/ नारायण का मन भी तब/ बुन रहा था ख्वाब/ ‘रेत में नहाने का।’’
    ‘लज्जा नैनन की कहां, कहां रसीली डोर।/ अब तो दड़बों में रहा चित्रहार का शोर।’ जैसी पंक्तियों का अपना समय और दौर रहा है और ऐसे में यहां यह आग्रह गैरवाजिब नहीं कि इन कविताओं के अंत में इनका रचनाकाल भी अंकित किया जाना चाहिए था। जैसा कि कवि ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है कि इन रचनाओं में एक लंबा अंतराल रहा है और इनकी सार्थकता इस बात में भी देख सकते हैं कि अनेक रचनाएं कालजयी हैं। अपने समय-संदर्भों को अपने भीतर समेटे इन कविताओं में- ‘आजादी अब देख लो, जूठे जश्न मनाय।/ वर्ष पचासों बाद भी, भूख गरीबी हाय॥’ (आखर भए उदास, पृ. 60) जैसी कविताएं कवि की तरफ से जनता का सत्ता से सीधा संवाद है। यहां यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि इन कविताओं में जिस मुहावरे में संवाद हुआ है वह कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता है। देश और समाज के कर्णधारों को हमारे मरुथल में दाझे पांवों वाले कवि आईदान सिंह भाटी के शब्दों के परिपेक्ष्य में नए देश और समाज का निर्माण करना होगा। आम जन को भूख और गरीबी की मार से बचाना ही हमारी आजादी का सच्चा जश्न होगा।    
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जलते मरुथल में दाझे पांवों से (कविता संग्रह)
कवि : आईदान सिंह भाटी
प्रकाशक : रॉयल पब्लिकेशन, 18, शक्ति कॉलोनी, गली नंबर 2, लोको शेड रोड, रातानाड़ा, जोधपुर
पृष्ठ : 112 ; मूल्य : 250/- ; संस्करण : 2019

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 डॉ. नीरज  दइया

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