अपने पहले कविता-संग्रह ‘खुले आकाश में’ भी कवि वर्मा ने स्पष्ट कहा है कि उनको कोई सेलिब्रिटी नहीं बनना है। वह अपनी मिट्टी से जुड़े रहना पसंद करते हैं। यह अकारण नहीं है कि वहां भी वे शीर्षक कविता में अपनी धरती के साथ मां का स्मरण करते हैं। आजादी के मायने समझते हुए उसका आम आदमी के रूप में रहना और देश-दुनिया के साथ अपने परिवेश को समझना यहां इस संग्रह में भी जारी है। समकालीन हिंदी कविता के विशाल प्रांगण में ज्योतिकृष्ण वर्मा ने अपना निजी मुहावरा विकसित करते हुए अपनी अलाहदा पहचान प्रस्तुत की है। बहुत कम शब्दों में वे मुख्य रूप से जीवन के आस पास की स्थितियों और घटनाओं में विरोधाभासों को काव्यानुभव के रूप में अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिए ‘बैसाखियां’ शीर्षक से तीन छोटी-छोटी कविताएं हैं जिसकी कुछ पंक्तियां देखें- ‘कंधों से मजबूत/ साबित होती हैं/ कभी कभी/ बैसाखियां।’ अथवा ‘वो अंधेरा बंद कमरा/ जहां रखी है/ बहुत-सी बैसाखियां/ वहीं का वहीं है/ बरसों से।’ (पृष्ठ- 26)
छुई-मुई सी कविताओं में जीवन का विराट रूप देख सकते हैं। बहुत कम शब्दों में जिस प्रकार कवि बहुत कुछ प्रस्तुत करने की असाधारण प्रतिभा रखता है वैसा बहुत कम कवियों के यहां संभव होता है। ‘समंदर/ कभी किसी के/ घावों के बारे में/ नहीं पूछता/ उसके पास/ नमक के सिवा/ कुछ नहीं!’ (पृष्ठ- 32) बहुत कम शब्दों में यहां जिस विराट से साक्षात्कार होता है उससे हम निशब्द हो जाते हैं। संग्रह की कविताओं में हम प्रकृति के विविध घटकों को उनके नए रूप में देखकर आश्चर्य चकित होते हैं। जिस भांति छुई-मुई स्पर्श मात्र से तुरंत अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है ठीक वैसे ही इन कविताओं का पाठ बहुत कम शब्दों से हमें अपनी हलचल से झंकृत करता है। संग्रह की एक अन्य छोटी सी कविता ‘दुख’ को उदाहरण के रूप में देखें- ‘पानी का/ सबसे बड़ा दुख/ ये है/ कि उसके आंसू/ दिखाई/ नहीं देते।’ (पृष्ठ- 41) कविताओं में प्रस्तुत प्रतीकों को हम जीवन के विविध पक्षों से जोड़ते हुए उनमें निहित व्यंजनाओं को जान सकते हैं। यह इन कविताओं की सफलता है कि वे हमें अर्थ का नया आकाश देती हैं।
कवि ज्योतिकृष्ण की एक छोटी सी कविता में पाषण-युग की नवीन व्याख्या को देखा जा सकता है। कवि एकदम अभिधा में और गद्य की भांति अपनी बात रखते हुए अंत में जैसे बड़ी छलांग से अर्थ का विस्फोट कर देता है- ‘यह/ तब की बात है/ जब मनुष्य/ लिखना नहीं था/ कविता/ इतिहासकारों ने/ इसीलिए शायद/ नाम दिया/ उसे/ पाषण-युग।’ कवि जीवन संघर्षों के बीच तिनकों की ताकत अजमाने की प्रेरणा देता है तो इसके साथ ही कवि का कविता रचने का उद्देश्य भी उसके सामने स्पष्ट है। कविता ‘कवि से’ में वर्मा ने पेड़ का कागज बनकर आना और कवि से उन शिकारियों के बारे में जानने की अभिलाषा जिसने पक्षियों को मारा है स्पष्ट रूप से रचना के उत्तरदायित्व बोध का संकेत है। कवि का मानना है कि इस संसार में कविता ही बचेगी और संवेदनाओं के लिए कविता को बचाया जाना बेहद जरूरी है। संभवतः इसी कारण कवि कविता ‘मंथन के बाद’ में समुद्र की थाह में बैठी छुई-मुई सी एक कविता को मंथन से अमृत जैसे प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त करता है। कविता ही जीवन का अमृत है तो उसे विराट से प्राप्त करना इन कविताओं में प्रस्तुत हुआ है। ‘मेरे गम की/ इंतहा/ अभी बाकी है शायद/ मैंने/ समंदर को भी/ देखा है/ बेबसी में/ चट्टानों पर/ सिर पटकते हुए।’ (पृष्ठ- 92)
भूमिका में प्रख्यात कवि अरुण कमल जी की इस बात से सहमत हो सकते हैं, उन्होंने लिखा है- ‘ज्योति जी ने बड़े धैर्य और अपनापे से मानव जीवन और प्रकृति के तत्वों का संधान किया है और जीवन की विडंबनाओं को सटीक भाषा में प्रस्तुत किया है।’ ज्योतिकृष्ण वर्मा के पास ऐसी दृष्टि और कला है कि वे बहुत छोटी सी कविता में केवल एक शब्द के परिवर्तन से अर्थ का विस्फोट करने में समर्थ हैं। ‘मजदूर खुली आंखों से/ तुम्हारे लिए/ बंद आंखों से/ अपने लिए/ बनाते हैं घर। (पृष्ठ- 56) कवि के साथ इस सुंदर प्रकाशन की सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति के लिए बोधि प्रकाशन को बहुत बधाई।
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पुस्तक का नाम – मीठे पानी की मटकियाँ (कविता संग्रह)
कवि – ज्योतिकृष्ण वर्मा
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ- 96
संस्करण - 2021
मूल्य- 150/-
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