एक समय था जब समाज से साहित्य को जोड़ने की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी थी कविता। मंचीय कविता ने अपने समाज और समय को अभिव्यक्त करते हुए न केवल उसे प्रभावित किया वरना नए आयाम भी स्थापित किए। यह मजबूत कड़ी जो एक सेतु के रूप में थी, कैसे हमारे समय और समाज में धीरे-धीरे कमजोर होती चली गई इसका संपूर्ण विवरण जानने के लिए हमें अरविंद तिवारी का नया व्यंग उपन्यास "लिफाफे में कविता" देखना चाहिए। एक दौर में लेखक स्वयं मंचीय कविता से जुड़े रहे हैं और उनका लंबा अनुभव रहा है। कवि सम्मेलनों के द्वारा कविता के घटते स्तर और पतन के जिम्मेदार कारणों की तलाश में यह व्यंग्य उपन्यास लिखा गया है।
कृति के विषय में फ्लैप पर लिखा गया है-
“कवि-सम्मेलनों का ग्लैमर किसी से छुपा नहीं है। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कवि-सम्मेलन शुरू हुए थे। स्वतंत्रता संग्राम में कवि-सम्मेलनों की महती भूमिका रही है। हिंदी के प्रति इतना अनुराग था कि बड़े-बड़े कवि कवि-सम्मेलनों में निःशुल्क कविता पाठ करते थे। त्याग की विरासत वाले कवि-सम्मेलन अब एक उद्योग का रूप धारण कर चुके हैं। इस विषय पर अभी तक कोई उपन्यास नहीं लिखा गया। 'लिफाफे में कविता' पहला उपन्यास है, जो व्यंग्य के जरिए कवि-सम्मेलनों की पड़ताल करता है।
आज कवि-सम्मेलनों में कविता के नाम पर चुटकुले पढ़े जाते हैं। साहित्यिक कविताओं का कमरा बंद हो गया है। कवि-सम्मेलन लाफ्टर कार्यक्रमों का पर्याय हो गए हैं। धन-लिप्सा और यश-लिप्सा ने कवि-सम्मेलन को भोंड़ी शक्ल में तब्दील कर दिया हैं। बड़े मंचीय कवियों की खड़ाऊं उठाकर कोई भी सफलता प्राप्त कर सकता है। फिल्मों में ही नहीं, कवि-सम्मेलनों में भी कवयित्रियों को कास्टिंग काऊच का शिकार होना पड़ता है। इस उपन्यास का कथानक यथार्थ के इतना करीब है कि पाठक को लगता है यह चित्रण तो उसके देखे-सुने हुए कवि का है।”
यह टिप्पणी पूरे व्यंग्य उपन्यास का एक खाका हमारे समाने प्रस्तुत करती है। कवि सम्मेलन और कविता का गिरता स्तर व्यापक विषय जरूर है परंतु इसे एक व्यंग्य उपन्यास में निर्वाह करना बड़ा जोखिम भरा रहा है जिसे लेखक ने शानदार ढंग से पूरा किया है। अरविंद तिवारी मेरे प्रिय लेखकों में से एक हैं। विगत तीन दशकों से मैं उनका पाठक रहा हूं। जब वे मेरे शहर बीकानेर में शिक्षा विभाग की मासिक पत्रिका "शिविरा" के संपादक रहे तब उनसे मिलने-बतियाने का अवसर भी मिला है। मेरे विचार से तिवारी जी के लेखन में सर्वाधिक प्रभावित करने वाली बात उनका रचना के लिए धैर्य और रचनाकर्म के प्रति गंभीरता है।
अरविंद तिवारी के व्यंग्य उपन्यास ‘दिया तले अंधेरा’ (1997) को मैं शिक्षा जगत की विद्रूपताओं पर प्रकाश डालने वाला सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य उपन्यास मानता हूं।वे ऐसे गद्य के लेखक हैं जो अपने कौशल से जिस किसी विषय को उठाते है उसमें आकर्षण और पठनीयता के लिए भाषा में व्यंग्य का छोंक प्रस्तुत करने का अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं। किसी व्यंग्य उपन्यास में अंत तक पाठकों को बांधना बड़ा कठिन है किंतु वे भाषा बरतने का हुनर जानते हैं, इसलिए निरंतर घटनाक्रम में कौतूहल को बनाए रख कर रचना में अंत तक निरंतर बनाए रखते हैं।यहां यह भी स्पष्ट करना उचित होगा कि इस कृति के विषय में मैंने बहुत पहले उनकी एक फेसबुक पोस्ट पढ़ी थी जिसे मैं यहां साझा करता हूं, 18 अगस्त, 2016 की है-
“पिछले डेढ़ वर्ष से चौथा व्यंग्य उपन्यास लिख रहा था कवि सम्मेलनों पर।आदि से अंत तक व्यंग्य मगर पूरा होने पर भी तय नहीं कर पा रहा था शीर्षक क्या हो। यह चिंता तब से थी जब मैंने इस उपन्यास का छोक डाला था। हमारे यहां शुरू करने को छोक डालना कहा जाता है।आज जब इंस्टेंट व्यंग्य के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार आलोक पुराणिक जी से फ़ोन पर बात हुई तो चुटकियों में समाधान हो गया।तपाक से उन्होंने नाम सुझाया- ‘लिफ़ाफ़े में कविता’। पिछली कई रातें सोचते सोचते बीत गयीं बल्कि एक साल से ख़ाली हाथ था।बहुत बहुत धन्यवाद आलोक पुराणिक जी।आप भी इंतज़ार करिये अगले वर्ष का जब लिफ़ाफ़े में कविता शीर्षक से व्यंग्य उपन्यास आपके हाथ में होगा।” संयोग ऐसा बना कि यह व्यंग्य उपन्यास वर्ष 2021 में हाथ में आया।
यहां उनके धैर्य और गंभीरता के साथ ईमानदारी को भी देखा जा सकता है। यह उपन्यास व्यंग्य उपन्यास परंपरा में एक नवीन हस्तक्षेप है। लेखक का यह कौशल है कि उसने एक विषय में उसके आस पास के अनेक विषयों को इसमें समाहित करने का प्रयास किया है। उपन्यास का आरंभ एक युवा कवि की पारिवारिक स्थितियों को वर्णित करते हुए होता है जिसमें अंत तक पूरा घर-परिवार-समाज, प्रांत और देश शामिल हो जाता है। युवा कवि परसादी लाल के माध्यम से न केवल कवि सम्मेलनों का सच यहां उजागर हुआ है वरन साथी कवियों के साथ-साथ दफ्तरों, नेताओं, पार्टियों, परिवारों आदि का भी सच प्रमुखता से सामने रखा गया है। उपन्यास हमें बताता है कि स्वार्थी और चापलूस लोग किस प्रकार समय देखकर अपना रंग बदलते हैं। शराब और शबाब जैसे मुद्दों को भी रोचकता के साथ वर्णित करते हुए अरविंद तिवारी ऐसे लेखक के रूप में सामने आते हैं जो किसी को भी बख्शना नहीं जानते हैं। सार रूप में कहें तो इस व्यंग्य उपन्यास में प्रमुख युक्तियां सफलता से प्रयुक्त हुई है। पहली युक्ति- मुहावरों का सृजनात्मक प्रयोग। तिवारी जी के समग्र लेखन में हमें जिस व्यंजना के दर्शन होते हैं वह यहां भी बहुत सादगी के साथ उछाल पर है- “विरोधियों की छाती छोड़कर सांपों ने पन्नाराम की छाती का रूख किया।” जैसे अनेक वाक्य इसके साक्ष्य में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। दूसरी बात किसी घटना और संदर्भ को वे वर्तमान राजनीति अथवा समाजिक घटनाक्रम से जोड़ते हुए जगह जगह पंच प्रस्तुत करते हैं।
“परसादी लाल को लेकर की गई पंडितों की भविष्यवाणी भारत सरकार के ‘गरीबी हटाओ’ कार्यक्रम की तरह फ्लॉप हो चुकी थी।”
"अधिकांश कवयित्रियां मंच के कवि को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करती हैं। बाद में कई कवयित्रियां सीढ़ी को लात मारकर नीचे गिरा देती हैं।"
कवियों की शराबनोशी पर पंच देखें,"सूर्यवंशी उन्हें कहा जाता है जो दिन में पीते हैं।रात में पीने वाले चंद्रवंशी कहे जाते हैं।जो कवि दिन और रात की परवाह किए बिना पीते हैं,वे वर्णसंकर कहे जाते हैं।"
"जब कवि सम्मेलनों का टोटा पड़ जाता है तब मंचीय कवि अपने काव्य संग्रह छपवाने लगता है।"
"घर में जब पैसा आता है तो विचारधाराएं बदल जाती हैं।"
कहना होगा कि भाषा की सरलता, सादगी किंतु पूरी कसावट के साथ इक्कीस अध्यायों में रचित यह उपन्यास स्वयं में "इक्कीस" यानी श्रेष्ठ व्यंग्य उपन्यास है।
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पुस्तक का नाम : लिफाफे में कविता (व्यंग्य उपन्यास) ; लेखक : अरविंद तिवारी
विधा – उपन्यास ; संस्करण – 2021 ; पृष्ठ संख्या – 192 ; मूल्य – 400/- रुपए
प्रकाशक – प्रतिभा प्रतिष्ठान, 694- बी, चावड़ी बाजार, नई दिल्ली 110006
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० डॉ. नीरज दइया
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