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यांत्रिक होती दुनिया में एक आत्मीय आलाप / डॉ. नीरज दइया

 नाटककार, निर्देशक, आलोचक और कवि के रूप ख्याति प्राप्त डॉ. अर्जुन देव चारण का नवीन कविता संग्रह ‘कबाड़ होवती जूंण’ इस यांत्रिक होती दुनिया में एक आत्मीय आलाप है। यह संग्रह उनके पूर्ववर्ती संग्रहों से अनेक अर्थों में भिन्न और बहुत आगे का कहा जा सकता है। यहां कवि ने मनुष्य, भाषा और शब्द के रागात्मक संबंधों को स्वर दिया है। कवि व्यक्ति की अंतस-चेतना को जाग्रत कर मातृभाषा को दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त करने का आह्वान करते हुए कहता है- ‘इणी सारूं कैवूं/ करौ/ आपरी भासा रौ मांन।/ मती बणौ/ नुगरा कै गुणचोर,/ इण भासा रै पांण ई/ अपांरी जीया जूंण में/ सगळी हळगळ है।’ (पृष्ठ-10) मातृभाषा को दैनिक बोलचाल में प्रयुक्त नहीं करने को बड़ा पाप बातते हुए कवि हमें इसे फर्ज की संज्ञा देते हुए कहता है कि संपूर्ण सृष्टि की पहचान भाषा से ही संभव है। संग्रह की लंबी कविता ‘माफीनामौ’ में कवि ‘जलम भायली’ राजस्थानी से माफी मांगते हुए जैसे हमारे सुप्त-तंत्र की जाग्रति के लिए एक मुहिम है।
    कविताओं में इक्कीसवीं शताब्दी के उत्थान के साथ-साथ लुप्त होती मनुष्यता और जीवन में दिन-प्रतिदिन तेजी से व्याप्त होती यांत्रिकता को गहरे व्यंग्य-बोध के साथ उजागर करता है। ‘नुंवौ मिनख’ कविता में नए युग के मनुष्य को कवि विभिन्न बिंबों के माध्यम से व्यंजित करते हुए कह रहा है- ‘भगवान नै बारै काढौ/ बो ई तौ/ डरावै मिनख नै/ देवै हेत/ प्रीत, दया, करुणा/ गरिमा, निबळाई, मरजाद।/ मरजाद है/ इणी सांरू कार है/ नुंवौ मिनख/ नीं मानैला कोई सींव/ बस उणनै आगै बधणौ है/ दूजा सगाळां नै/ चींथता।’ (पृष्ठ-28) मनुष्य की घटती गरिमा का मूल कारण शब्द और भाषा का क्षरण है। अक्षरों में अब पहले जैसी गरिमा चमक-दमक नहीं रही। ‘आखर सूं बणै/ सबद/ अर सबद सूं वाक्य,/ पण कित्ती अचरज री बात है/ कै सबदां तांई पूगता/ आखर/ गमाय देवै आपरी आब,/ अर/ सबदां रौ उणियारौ/ वाक्यां मांय बांधतां ई/ असैंधौ होय जावै।’ (पृष्ठ-80)
    कवि अर्जुन देव चारण जिन शब्दों की गरिमा और उत्कर्ष की बात यहां करते हैं उसका अहसास कविता ‘आजादी’ की इन पंक्तियों के माध्यम से किया जा सकता है- ‘फगत तीन आखर इज नीं है/ आजादी,/ तीन लोक रै पसराव री/ घोषणा है/ जकी हमेसा गूंजती रैवै/ धरती सूं आभै रै बिच्चै।’ (पृष्ठ-58) मनुष्य का जीवन  बिना भाषा के निष्प्राण है। भाषा के बिना कुछ भी संभव नहीं है। मातृभाषा से ही हमारी अस्मिता है। इसके बिना जो जीवन जी रहे है उसके लिए कवि कह रहा है- ‘मुआं जो दड़ौ/ कोई जुगां जूनौ/ दड़ौ नीं है/ अपां सगळा/ उंचाया हालां हां/ आप आप रौ/ मुआं जो दड़ौ।’ (पृष्ठ-39)
    सहज, सरल और प्रवाहयुक्त आत्मीय भाषा में रचित इस संग्रह की कविताएं हमारे अंतर्मन को स्पर्श करने वाली हैं। ये कविताएं वर्तमान समय में आत्मीय आलाप के साथ एक जरूरी हस्तक्षेप है। ‘कबाड़ होवती जूंण’ का पाठ असंवेदनशील समय में मनुष्य की संवेदनाओं और मनुष्यता को बचाने के लिए बेहद जरूरी है।  
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पुस्तक का नाम – कबाड़ होवती जूंण (कविता संग्रह)
कवि – अर्जुन देव चारण
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ- 80
संस्करण - 2021
मूल्य- 120/-

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 - डॉ. नीरज दइया

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