मन को नियंत्रण में लेते हुए दोनों पुस्तकों में संग्रहित 66 व्यंग्य रचनाओं का गंभीरता से पाठ आवश्यक लगता है। यह गणित का आंकड़ा इसलिए भी जरूरी है कि दोनों व्यंग्य संग्रह में रचनाएं का जोड़ 67 हैं पर एक व्यंग्य ‘पांडेजी की जलेबियां’ दोनों व्यंग्य संग्रहों में शामिल है। यहां यह कहना भी उचित होगा कि इन दोनों व्यंग्य संग्रह में लालित्य ललित ने व्यंग्य के नाम पर कुछ जलेबियां पेश की है। वैसे भी व्यक्तिगत जीवन में आप स्वाद के दीवाने हैं और संग्रह के अनेक व्यंग्य आपके इसी स्वाद के रहते जरा स्वादिष्ठ हो गए हैं। जाहिर है कि आपकी इन जलेबियों में आपके अपने निजी स्वाद की रंगत और कलाकारी है जो आपको अन्य व्यंग्यकारों से अलग सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। कलाकारी इस अर्थ में कि लालित्य ललित कवि के रूप में जाने जाते हैं और संख्यात्मक रूप से भी आपकी कविताओं की किताबों का कुल जमा आंकड़ा डराने वाला है। अपनी धुन के धनी ललित का 32 वां कविता संग्रह "कभी सोचता हूं कि" आ रहा है। ऐसे में बिना पढ़े-सुने उन्हें कवि-व्यंग्यकार मानने वाले बहुत है तो जाहिर है उनके व्यंग्यकार की पड़ताल होनी चाहिए जिससे वास्तविक सत्य उजागर हो सके। उनके कवि की बात फिर कभी फिलहाल व्यंग्यकार की बात करे तो गद्य को कवियों का निकष कह गया है। निबंध गद्य का निकष कहा जाता है, इसमें व्यंग्य को भी समाहित ही नहीं विशेष माना जाना चाहिए। अस्तु कवि-कर्म को कसौटी व्यंग्य भी है।
लालित्य ललित के व्यंग्य की तुलना किसी अन्य व्यंग्यकार ने इसलिए नहीं की जा सकती कि उन्होंने स्वयं की एक शैली विकसित करने का प्रयास किया है। उनके व्यंग्य किसी अन्य व्यंग्यकार या हिंदी व्यंग्य की मुख्य धारा से अलग अपने ही तरह के व्यंग्य लेखन का परिणाम है। उनकी यह मौलिकता उनकी निजता भी है जो उन्हीं के आत्मकथन मजाक करने में उनकी अपनी सावधानी कि किसी को चुभे नहीं और अपना काम कर जाए की कसौटी के परिवृत में समाहित है। उनकी रचनाओं का औसत आकार लघु है और कहना चाहिए कि आम तौर पर दैनिक समाचार पत्रों को संतुष्ट करने वाला है। जहां उन्होंने इस लघुता का परित्याग किया है वे अपने पूरे सामर्थ्य के साथ उजागर हुए हैं। साथ ही यह भी कि वे व्यंग्यकार के रूप में भी अनेक स्थलों पर अपने कवि रूप को त्याग नहीं पाए हैं। सौंदर्य पर मुग्ध होने के भाव में उनकी चुटकी या पंच जिसे उन्होंने मजाक संज्ञा के रूप चिह्नित किया है चुभे नहीं की अभिलाषा पूरित करता है।
व्यंग्य का मूल भाव ‘दिवाली का सन्नाटा’ में इसलिए प्रखरता पर है कि उन्होंने करुणा और त्रासदी को वहां चिह्नित किया है। इस व्यंग्य के आरंभ में पैर और चादर का खेल भाषा में खेलते हुए वे चुभते भी है और अपना काम भी करते हैं। मूल बात यह है कि उनका यह चुभना अखरने वाला नहीं है। उनकी व्यंग्य-यात्रा में कुछ ऐसे भी व्यंग्य हैं जहां उनका नहीं चुभना ध्यनाकर्षक का विषय नहीं बनता है। यहां यह भी कहना आवश्यक है कि इसी व्यंग्य का बहुत मिलता जुलता प्रारूप इसी संग्रह में संकलित अन्य व्यंग्य ‘महंगाई की दौड़ में पांडेयजी’ में देखा जा सकता है। जाहिर है मेरी यह बात चुभने वाली हो सकती है पर अगर इसने अपना काम किया तो आगामी संग्रहों में ऐसा कहने का अवसर किसी को नहीं मिलेगा। सवाल यहां यह भी उभरता है कि विलायतीराम पांडेय ने क्या सच में अपने परिवार की खुशी के लिए किडनी का सौदा कर लिया है। यह हो सकता है कहीं हुआ भी हो किंतु यहां मूल भाव ऐसा किया जाने में जो करुणा है वह रेखांकित किए जाने योग्य है। आधुनिक जीवन में घर-परिवार और बच्चों की फरमाइशों के बीच पति और पिता का किरदार निभाने वाला जीव किस कदर उलझा हुआ है। लालित्य ललित की विशेषता यह है कि वे इस पिता और खासकर पति नामक जीव की पूरी ज्यामिति वर्तमान संदर्भों-स्थितियों में उकेरने की कोशिश करते हैं।
उनका मुख्य पात्र विलायतीराम पांडेय दोनों संग्रहों में सक्रिय है और दूसरे में तो वह पूरी तरह छाया हुआ है। धीरे धीरे उसकी पूरी जन्म कुंडली हमारे सामने आ जाती है। नाम- विलायतीराम पांडेय, पिता का नाम- बटेशरनाथ पांडेय, माता का नाम- चमेली देवी, पत्नी- राम प्यारी यानी दुलारी और दोस्त- अशर्फीलाल जैसे कुछ स्थाई संदर्भ व्यंग्यकार ने अपने नाम करते हुए विगत चार-पांच वर्षों का देश और दुनिया का एक इतिहास इनके द्वारा हमारे समाने रखने का प्रयास किया है। यहां दिल्ली और महानगरों में परिवर्तित जीवन की रंग-बिरंगी अनेक झांकियां है तो उनके सुख-दुख के साथ त्रासदियों का वर्णन भी है। पति-पत्नी की नोक-झोंक और प्रेम के किस्सों के साथ एक संदेश और शिक्षा का अनकहा भाव भी समाहित है। कहना होगा कि लालित्य ललित मजाक मजाक में अपना काम भी कर जाते हैं। यहां व्यंग्य का मूल केवल कुछ पंक्तियों में निहित नहीं है, वरन व्यंग्य का वितान जीवन के इर्द-गिर्द दिखाई देता है। स्वार्थी और मोल-भाव करने वाले प्राणियों के बीच इन रचनाओं का नायक विलायतीराम पांडेय कहीं-कहीं खुद व्यंग्यकार लालित्य ललित नजर आता है तो कहीं-कहीं उनके रंग रूप में पाठक भी स्वयं को अपने चेहरों को समाहित देख सकते हैं। आज का युवा वर्ग इन रचनाओं में विद्यमान है। उसके सोच और समझ को व्याख्यायित करते हुए एक बेहतर देश और समाज का सपना इनमें निहित है।
यहां लालित्य ललित की अब तक की व्यंग्य-यात्रा के सभी व्यंग्यों की चर्चा संभव नहीं है फिर भी उनके दोनों संग्रहों से कुछ पंक्तियां इस आश्य के साथ प्रस्तुत होनी चाहिए कि जिनसे उनके व्यंग्यकार का मूल भाव प्रगट हो सके। पहले व्यंग्य संग्रह से कुछ उदाहरण देखें- ‘आप भारतीय हैं यदि सही मायनों में, तो पड़ोसी से जलन करना, खुन्नस निकालना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है।’ (पृष्ठ-15); ‘जमाना चतुर सुजानों का है। मक्खन-मलाई का है, हां-जी, हां-जी का है, अगर आप यह टेक्नीक नहीं सीखोगे तो मात खा जाओगे, दुनियादारी से पिछड़ जाओगे।’ (पृष्ठ-20); ‘मगर यह बॉस किसिम के जीव जरा घाघ प्रजाति के होते हैं, जो न आपके सगे होते हैं और संबंधी तो बिल्कुल नहीं।’ (पृष्ठ-29); ‘सांसारिक लोगों का हाजमा होता ही कमजोर है।’ (पृष्ठ-37); ‘इन दिनों बड़ा लेखक छोटे को कुछ नहीं समझता तो छोटा लेखक बड़े को बड़ा नहीं समझता, हिसाब-किताब बराबर।’ (पृष्ठ-52); ‘जो लेते हैं मौका, वही माते हैं चौका।’ (पृष्ठ-58); ‘यह हिंदुस्तान है, यहां कुछ भी हो सकता है। अंधे का ड्राइविंग लाइसेंस बन सकता है। मृत को जीवित बनाया जा सकता है।’ (पृष्ठ-65); ‘यही तो भारतीय परंपरा है- हम एक बार किसी से कुछ उधार लेते हैं तो देते नहीं।’ (पृष्ठ-92) आदि
कुछ उदाहरण दूसरे व्यंग्य संग्रह से- ‘विलायतीराम पांडेय ने सोचा पल्ले पैसा हो तो साहित्यकार क्या, मंच क्या, अखबार क्या कुछ भी मैनेज किया जा सकता है।’ (पृष्ठ-21); ‘घूस देना आज राष्ट्रीय पर्व बन चुका है। अपने दी, आपकी फाइल चल पड़ी और नहीं दी तो आपका काम अटक गया, भले ही आप कितने बड़े तोपची हों।’ (पृष्ठ-24); ‘एक वो जमान था, एक अब जमाना है। बच्चे पहले तो सुन लेते थे, पर अब लगता है जैसे हम भैंक रहे हैं और वह अनसुना करने में यकीन करते हैं।’ (पृष्ठ-28); ‘कामवाली बाई भी वाट्सअप पर बता देती है, आज माथा गर्म है, मेमसाब, नहीं आ पाऊंगी, वेशक पगार काट लेना। (पृष्ठ-30); ‘बाजार में नोटबंदी के चलते कर्फ्यू-सा माहौल था।’ (पृष्ठ-38); ‘अब देश के नेता बाढ़ में जाने के बजाय अपना दुःख ट्विटर पर व्यक्त कर देते हैं। (पृष्ठ-66); ‘मंदी ने बजाया आज सभी का बाजा, लेकिन राजनेताओं का कभी नहीं बजता बाजा, पता नहीं वो दिन कब आएगा।’ (पृष्ठ-80); ‘नंगापन क्या समाज के लिए अनिवार्य योग्यताओं में शामिल एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। कितने पोर्न पसंदीदा हो गए हम।’ (पृष्ठ-92); आदि उदाहरणो से जाहिर है कि उनके यहां विषय की विविधा के साथ समसामयिक स्थितियों से गहरी मुठभेड भी है। वे साहित्य और समाज के पतन पर चिंतित दिखाई देते हैं और साथ ही जनमानस की बदलती प्रवृतियों और लोक व्यवहार को रेखांकित करते हुए कुछ ऐसे संकेत छोड़ते हैं जिन्हें पाठकों को पकड़ना है। वे अपनी बात पर कायम है कि उनका कोई भी मजाक हिंसक नहीं है वरन वे अहिंसा के साथ उस रोग और प्रवृत्ति को स्वचिंतन से बदलने का मार्ग दिखलाते हैं।
लालित्य ललित के पास गद्य का एक कौशल है जिसके रहते वे किसी उद्घोषक की भांति अपनी बात कहते हुए आधुनिक शव्दावली में अपने आस-पास के बिम्ब-विधान के साथ नए रूपकों को निर्धारित करने का प्रयास करते हैं। काफी जगहों पर हम व्यंग्य में कवि के रूप में ‘यमक’ और ‘श्लेष’ अलंकारों पर उनका मोह भी देख सकते हैं। एक उदाहरण देखें- ‘बॉस यदि शक्की है तो आपको ‘ऐश’ हो सकती है, बच्चन वाली ‘ऐश’ नहीं। नहीं तो अभिषेक की ठुकाई के पात्र बन सकते हैं।’ (‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’, पृष्ठ-35) वे व्यक्तिगत जीवन में खाने और जायकों के शौकीन हैं तो उनके व्यंग्य में ऐसे अनेक स्थल हैं जहां उनकी इस रुचि के रहते हमें मजेदार परांठों और पकौड़ों के बहुत स्वादिष्ट अनुभव ज्ञात होते हैं। नमकीन और मिठाई पर उनकी मेहरबानी कुछ अधिक मात्रा में है कि वे अपनी पूरी बिरादरी का आकलन भी प्रस्तुत करते हैं- ‘शुगर के मरीज लेखक लगभग अस्सी पर्सेंट हैं पर मुफ्त की मिठाई खाने में परहेज कैसा!’ (‘विलायतीराम पांडेय’, पृष्ठ-16)
विलायतीराम पांडेय उनके लिए सम्मानित पार है और वे उसे यत्र-तत्र ‘नत्थू’ बनने की प्रविधियों में बचाते भी हैं। भारतीय पतियों और पत्नियों के संबंधों में मधुता होनी चाहिए इस तथ्य की पूर्ण पैरवी करते हुए भी पतियों और पत्नियों की कुछ कमजोरियों को भी वे बेबाकी के साथ उजागर भी करते हैं। जैसे संग्रह ‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’ के दो उदाहरण देखिए- ‘अधिकतर मर्द जिनकी प्रायः बोलती घरों में बंद रहती है, यहां नाई की दुकान पर उनकी जबान कैंची की तरह चलती है।’ (पृष्ठ-78); ‘शादी-शुदा है यानी तमान बोझों से लदा-फदा एक ऐसा आदमी, जिसकी न घर में जरूरत है और न समाज में।’ (पृष्ठ-24) दूसरे संग्रह ‘विलायतीराम पांडेय’ से- ‘जिंदगी में क्या और किस तरह एक पति को पापड़ बेलने पड़ते हैं यह पति ही जानता है, जो दिन रात खटता है।’ (पृष्ठ-59); ‘हे भारतीय पुरुष ! तू केवल खर्चा करने को पैदा हुआ है। खूब कमा, पत्नियों पर खर्चा कर। बच्चों के लिए ए.टी.एम. बन।’ (पृष्ठ-74); ‘हद है यार, महिला दिखी नहीं कि छिपी हुई सेवा-भावना हर पुरुष की उजागर हो जाती है।’ (पृष्ठ-101)
लालित्य ललित के व्यंग्यों में प्रतुक्त अनेक उपमाएं रेखांकित किए जाने योग्य है। वे परंपरागत उपमानों के स्थान पर नए और ताजे उपमान प्रयुक्त करते देखे जा सकते हैं। यह नवीनता बाजार की बदलती भाषा और रुचियों से पोषित है। वे एक ऐसे युवा चितेरे हैं जिन्हें अपनी परंपरा से गुरेज नहीं है तो साथ ही अतिआधुनिक समाज की बदलती रुचियों और लोक व्यवहार से अरुचि भी नहीं है। हलांकी वे कुछ ऐसे शब्दों को भी व्यंग्य में ले आते हैं जिनसे आमतौर पर अन्य व्यंग्यकार परहेज किया करते हैं अथवा कहें बचा करते हैं। ‘मेरा भारत महान, जहां मन हो थकने का और जहां मन हो मूतने का,कही कोई रूकावट नहीं है।’ (‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’, पृष्ठ-55) ये अति आवश्यक और सहज मानवीय क्रियाएं हैं। सभी का सरोकार भी रहता है फिर भी उनके यहां शब्दों की मर्यादा है और वे संकेतों में बात कहने में भी सक्षम है- ‘हम भारतीय इतने प्यारे हैं कि अपने शाब्दिक उच्चारण से किसी का भी बी.पी. यानी रक्तचाप तीव्र कर सकते हैं या आपकी चीनी घटा सकते हैं।’ (‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’, पृष्ठ-17);
अंत में यह उल्लेखनीय है कि लालित्य ललित के व्यंग्य अपनी समग्रता और एकाग्रता में जो प्रभाव रचते हैं, वह प्रभावशाली है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे संभवतः पृथक-पृथक अपनी व्यंजनाओं से हमें बेशक उतना प्रभावित नहीं करते भी हो किंतु धैर्यपूर्वक पाठ और उनकी सामूहिक उपस्थिति निसंदेह एक यादगार बनकर दूर तक हमारे साथ चलने वाली है। विविध जीवन स्थितियों से हसंते-हसंते मुठभेड करने वाला उन्होंने अपना एक स्थाई और यादगार पात्र रचा है। अब आप ही बताएं कि हिंदी व्यंग्य साहित्य की बात हो तो कोई भला विलायतीराम पांडेय को कैसे भूल सकता है।
वाह अद्भुत
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