"साठ पार" कवि कथाकार सत्यनारायण का सद्य प्रकाशित तीसरा कविता संग्रह है। इससे पूर्व "अभी यह धरती", "जैसे बचा है जीवन" संग्रहों की कविताएं समकालीन कविता में पर्याप्त चर्चा का विषय रही हैं। तुलनात्मक रूप से डॉ. सत्यनारायण कविता की तुलना में अपने बेजोड़ गद्य लेखन से अधिक जाने जाते हैं, किंतु उनकी कविताएं भी अपनी व्यंजना और शिल्प-शैली के कारण विशिष्ट हैं। असल में कवि का यह संग्रह 60 पार अभिधा में उनकी उम्र को व्यंजित करता है पर असल में व्यंजना में इसके अनेक अर्थ घटक समाहित है जो संग्रह की कविताओं में देखें जा सकते हैं।
प्रेम कभी पुराना नहीं होता और डॉ सत्यनारायण के यहां प्रेम भी एक कविता अथवा किसी गीत की तरह है जिसे बार-बार गाया जाना जरूरी है क्योंकि इसी में जीवन का सार है। सात खंडों में विभक्त इस कविता संग्रह के पहले खंड को साठ नहीं आठ पार की आवाज नाम दिया गया है, जिसमें कवि अपनी छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से अपने छोटे से किंतु बहुत बड़े प्रेम की स्मृति को उजागर करता है। यहां कभी का आत्म संवाद और विभिन्न मन: स्थितियों में जैसे एक पुराना राग फिर फिर साधता चला जाता है -
दुख यह नहीं कि/ तुम नहीं मिली/ अफसोस यह कि/ शब्द जुटा नहीं पा रहा हूं/ साठ के पार भी/ यदि मिल जाती तो/ क्या कहता। (कविता - अफसोस यही की)
असल में जीवन अथवा प्रेम अपनी उम्र अथवा समय अवधि में नहीं वरन वह किसी अल्प अवधि अथवा क्षण विशेष में धड़कता रह सकता है इसका प्रमाण है संग्रह की कविताएं। जीवन में स्मृतियों का विशेष महत्व होता है और यह संग्रह विशिष्ट स्मृतियों का विशिष्ट कोलॉज है। अभी बची है/ एक याद/ बचे हैं/ कुछ सपने/ क्या इतना बहुत नहीं है/ जीने के लिए/साठ पार भी। (कविता - जीने के लिए)
बेशक कभी अपनी प्रेयसी उर्मि के लिए जितना मुखर होकर यहां प्रस्तुत हुआ है उस मुखरता में कहीं ना कहीं पाठक हृदय भी न केवल झंकृत होता है वरन वह भी इस एकालाप में अपना सुर मिलाकर साथ गाने लगता है यही इन कविताओं की सार्थकता है।
कहां हो प्रिय खंड मैं मृत्यु विषयक पंद्रह कविताओं को संकलित किया गया है। यहां भी कवि का जीवन से प्रेम और स्पंदित उपस्थिति प्रस्तुत होती है, वह जीवन के सुर में बजाता हुआ जीना चाहता है उसकी कामना है कि कहीं यदि वह रड़के तो मृत्यु उसे अजाने नींद में स्वीकार कर ले।
इच्छा थी तुम्हारी अथवा दुख कहां सीती होंगी अब मांएं खंडों में भी धड़कती हुई स्मृतियां और जीवन की आशा निराशा के बीच खोए अथवा खोते जा रहे प्रेम और जीवन की उपस्थिति दिखाई देती है। बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी बात कह देना कभी का विशेष हुनर है। इच्छा कविता को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है - "इच्छा थी तुम्हारी/ तुम/ इच्छा ही रह गयी।" अथवा हर सांस में याद - "हर सांस में/ घुली है याद/ नहीं तो/ मैं कैसे ले पाता सांस/ बिना याद के/ तुम्हारी।"
इन कविताओं में जहां एक और जीवन, प्रेम और संबंध धड़कते हैं वहीं दूसरी ओर राजस्थान की मिट्टी, यहां का परिवेश और जन जीवन अभिव्यक्त हुआ है। संग्रह के अंतिम खंड में कवि अपने मित्र रचनाकार रघुनंदन त्रिवेदी और रामानंद राठी का काव्यात्मक स्मरण भी करते हैं। संग्रह के अंत में दो गद्य कविताएं भी संकलित है। समग्र रूप से इन छोटी छोटी कविताओं में जिस सहजता सरलता के साथ हम जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों का अवलोकन करते हैं वह काल्पनिक और यांत्रिक होती जा रही हिंदी कविता का एक दुर्लभ क्षेत्र है। कहा जाना चाहिए कि साठ पार संग्रह का कवि सत्यनारायण मलिक मोहम्मद जायसी से चली आ रही प्रेमाश्रयी अथवा सूफी काव्य धारा का विस्तार अथवा आधुनिक संस्करण है।
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पुस्तक का नाम : साठ पार (कविता संग्रह)
कवि : सत्यनारायण
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन जयपुर
संस्करण : 2019
मूल्य : 150/-
पृष्ठ : 120
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डॉ. नीरज दइया
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