शीर्षक कहानी का आरंभिक अंश देखें- “सरकार अपनी चरम अवस्था पर थी... मेरा मतलब लोकतंत्र के हिसाब से आखिरी साल यही विकास की चरम अवस्था होती है। तीन साल तो पिछली सरकारों को खजाना खाली करने के आरोप से ही कट जाते हैं बीच का एक साल विकास योजनाओं का जो जाती-जाती सरकार अक्सर गिनाती हैं!! और अंतिम वर्ष में फ्री की योजनाऐं... फ्री का अनाज... फ्री की लाईट... फ्री स्कूटी भी... और सरकार की मर्जी पर है कुछ भी फ्री कर सकती है! जो कार्यकर्ता चार साल से फ्यूज बल्ब की तरह पड़े रहते हैं अचानक वो सक्रिय हो जाते हैं।” कहानी के आरंभ में राजनीति बोध में आम जनता की व्यथा-कथा के साथ तंज का स्वर प्रभावित करने वाला है।
बड़ा अस्पताल केवल एक कहानी नहीं वरन लोकतंत्र की एक सच्चाई है कि जिसमें एक सी.एच.सी. (सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र) को विधायक महोदय ने उप स्वास्थ्य केन्द्र से तीस बेड का सी.एच.सी. तो बना दिया किंतु चार कमरों का भवन पर्याप्त सुविधाओं के अभाव में ‘बड़ा अस्पताल’ से पुनः डिग्रेड कर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र कर दिया गया। कहानीकार का संवेदनशील होना और जनता के साथ एक चिकित्सक-कहानीकार के रूप में स्वस्थ भारत का सपना साकार करने के पक्ष में खड़े होना प्रभावित करता है। प्रेमचंद जी ने साहित्य को समाज के आगे जिस मशाल के रूप में चलने का परामर्श दिया था उसका यह और संग्रह की अन्य ऐसी कहानियां अंगीकार है। एक मरीज को हमारे देश में चिकित्सा के नाम पर पर्याप्त सुविधाएं मिलनी चाहिए इससे भला किसका विरोध होगा, फिर ऐसी रचनाएं ही हमारी संवेदनशीलता को द्विगुणित करती है और हम जनता और सरकार के साथ मिलकर कुछ जमीनी बदलाव की भूमिका के वाहक बनते हैं।
संग्रह की कहानी ‘सब स्पष्ट’ में स्वास्थ्य महकमे में व्याप्त भष्ट्राचार को व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है वहीं ‘लपका गिरोह’ में डॉक्टर और मरीज के बीच जन्मी ‘मध्यस्थ’ व्यवस्थाओं पर प्रकाश डाला गया है। कहानीकार का मानना है कि विश्व स्तरीय सुविधाओं की बात करने वाले हमारे जनप्रतिनिधियों का बिना तैयारी और व्यवस्थाओं की घोषणाओं द्वारा चिकित्सकों को और पूरी व्यवस्थाओं को हतोत्साहित करने जैसा है। ‘आराधना’ और ‘कहानीकार की कहानी’ भी ऐसी ही कहानियां हैं जिन में चिकित्सा जगत के मार्मिक चित्र व्यंजित हुए हैं। संग्रह में चिकित्सा जगत के साथ हमारा पूरा घर परिवार और समाज भी चित्रित हुआ है। नारी शक्ति का स्वर ‘शक्ति का दावानल’ और ‘फतेह’ जैसी रचनाओं में तो ‘शहीद का दर्जा’ में देश के लिए सर्वस्व त्यागने वाले सैनिकों की गाथा है जिस पर हमारी श्रद्धा और देश भक्ति की भावनाएं संवेदित होती है। कदमपुर का पहलवान, रोते घरौंदे, अनंत प्रेम, सबूत सबूत खेले आदि कहानियां भी प्रभावित करने वाली हैं।
कहानीकार रवीन्द्र कुमार यादव के सामाजिक सरोकार इतने गहरे और सघन हैं कि इन कहानियों में हमारा समय बोलता है। वे चिकित्सा जगत में समाज के जन-जन को सुखी और स्वस्थ रहने की परिकल्पना को साकार करते हैं तो कथा-साहित्य के माध्यम से अपनी इसी परिकल्पना को फिर फिर दोहराते हैं। निसंदेह स्थितियों से मुठभेड़ करते पात्र इन कहानियों में अपने समाज को आदर्श समाज के निर्माण के लिए प्रेरित प्रोत्साहित करते हैं। वे थक-हार कर बैठने वाले पात्र नहीं वरन खुद कुछ करते हुए अपने पाठकों को भी प्रेरित करते हैं। इन कहानियों से गुजरते हुए कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि हम किसी कहानीकार के पहले कहानी संग्रह को पढ़ रहे हैं। कहानीकार के जीवनानुभवों से जुड़ी इन कहानियों में यह शक्ति है कि वे हमारे अनुभव को जैसे साझा करती हुई हमें एक दिशा देती हैं।
किसी कहानीकार के लिए अपने निजी जीवन और आस-पास घटित घटानाओं को कहानी में ढालना एक कौशल होता है। कहानी विभिन्न घटनाक्रमों और अनेक सच्चाइयों के बीच छिपी रहती है। एक मर्म बिंदु को समझते हुए अपने परिवेश के साथ कहानी को चरम तक ले जाने की कला इस संग्रह के कहानीकार में सायास और सहजता से देख सकते हैं। बिना किसी शोर और विषयांतर के संग्रह की कहानियां हमारे भीतर स्थितियों से मुठभेड़ करते हुए परिवर्तन के वाहक बनने का जज्बा पैदा करने वाली हैं।
सर्वाधिक प्रभावशाली तथ्य यहां यह भी है कि बेशक संग्रह की कहानियां चिकित्सा जगत में व्याप्त न्यूनता-अधिकताओं के साथ उनके द्वंद्वों को उजागर करती हो, किंतु इसे व्यापक परिदृश्य में देखा जाए तो कमोबेश यही स्थितियां अन्य क्षेत्रों में भी दिखाई देती है। अस्तु इस संग्रह कहानियां वर्तमान दौर के बदलते समय और समाज को केन्द्र में रखते हुए एक युवा चिकित्सक-कहानीकार द्वारा किया गया जरूरी हस्तक्षेप है जिसमें कुछ कर गुजरने की बेचैनी के साथ अदम्य उत्साह है। जीवन की जीजीविषा और संघर्ष से भरे इस कहानी संग्रह को सुधि पाठकों का भरपूर प्यार मिलेगा ऐसा मुझे विश्वास है।
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बड़ा अस्पताल और अन्य कहानियाँ (कहानी संग्रह)
कहानीकार : डॉ. रवीन्द्र कुमार यादव
प्रकाशक : विकास प्रकाशन, जुबली नागरी भंडार, स्टेशन रोड़, बीकानेर (राज.)
पृष्ठ : 134 ; मूल्य : 300/- ; संस्करण : 2018
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- डॉ. नीरज दइया
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