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समकालीन स्त्री कविता की उपलब्धि / डॉ.नीरज दइया

 डॉ. ऋतु त्यागी का दूसरा कविता संग्रह- ‘समय की धुन पर’ (2019) बोधि प्रकाशन जयपुर से आया है। उनका पहला संग्रह- ‘कुछ लापता ख्वाबों की वापसी’ (2018) भी बोधि से आया था। वे निरंतर लिख रहीं हैं। उनकी कविताएं प्रभावित करती है किंतु कविताओं से भी अधिक उनका काव्यमय गद्य। किताब के अंतिम कवर पर लिखा उनका आत्मकथ्य इस बात का प्रमाण है- ‘समय अपनी ही धुन पर नृत्यरत था जब मैंने थोड़ा ठिठककर अपने आसपास देखा। भीड़ का एक लंबा रेला, जिसमें कुछ परिचित तथा कुछ अपरिचित चेहरे नजर आए। अतीत के कुछ हिस्से भी मेरा साथ देने यहां तक चले आए थे। मैं समंदर सी भीड़ में खड़े होकर भी उसके हाहाकार से दूर एक ऐसी अंदरूनी यात्रा पर थी जहां मेरे साथ मेरा समय एक मीठी सी गंध और लहक के साथ मेरी हथेलियों में अपनी हथेलियां फंसाकर चल रहा था और मुझसे सटकर दुनिया की कुछ अनाम उदासी, नीला जादू, कांच की तरह टूटता-बिखरता मन और कुछ अनचीन्ही गंध भी साथ चल रही थी। इसी अंदरूनी यात्रा में डूबते उतरते जो नमी मैंने अपनी हथेलियों पर महसूस की उसी की बानगी मेरी रचनाओं में दर्ज है।’
समय किसी को नहीं छोड़ता, सभी को नाच नचाता है और उसके-हमारे यानी सबके नाच में ही जीवन है। उनकी कविताओं में इसी जीवन दृष्टि का विस्तार है। कवयित्री ऋतु त्यागी ने जीवन के इस रहस्य को अपने अनुभवों से हासिल कर स्मित, आह्लाद, हर्ष, हंसी-खुशी को पाया है, जिसे वे अपने पाठकों से यहां साझा करती हैं। संग्रह की कविताएं हमारी तय सुदा धारणाओं को ध्वस्त करती हुई एक स्त्री-मन की कविताओं को कविता के पूरे परिदृश्य में देखे जाने की मांग करती हैं।
उनकी कविताओं में बिम्बों की नवीन छटाएं सम्मोहित करती हैं वहीं वे भाषा में एक नया मुहावरा बुनती हुई अर्थ का एक वितान रचती हैं। संग्रह की पहली कविता की आरंभिक पंक्तियां देखें-
मैंने
बहुत वक्त घिसा है तुम पर
ठीक वैसे ही
जैसे कि एक गरीब घिसता है
धरती पर अपना तलुवा
चांद आकाश पर अपनी चांदनी
और नदी
समंदर में अपना समूचा अस्तित्व।
(बहुत वक्त घिसा है तुम पर, पृष्ठ-13)
कविताओं में कवयित्री की निजता और अनुभवों की अभिव्यक्ति भाषा द्वारा एक रिश्ता बनाती है। वे बिना किसी चतुराई के बहुत सहजता-सरलता से सीधी-सरल बात में ऐसे मर्म तक अक्सर पहुंच जाती हैं कि उनके यहां अभिव्यक्त स्थितियों में हम खुद को शामिल पाते हैं।
इस संग्रह की कविताओं में स्थितियों को लेकर व्यंग्य का स्वर भी प्रमुखता से देखा जा सकता है।
कभी कभी किसी की
एक उंगुली का इशारा भी
खोल देता है जेहन का ताला

पर दुनिया की बहुत-सी
इशारा करने में पारंगत
उंगुलियों को
इसलिए तोड़ दिया जाता है

क्योंकि हर ताकतवर उंगली
अपने इशारों पर
दुनिया को चलाने की
बे-वजह-सी हसरत पाले है।
(उंगुली का इशारा, पृष्ठ-21)
संग्रह की कविताओं में कहन की सादगी-सरलता उन्हें अपनी समकालीन कवयित्रों से अलग और विशिष्ट बनाती हैं।
उसके
कान की खिड़की पर
तारीफ का अखबार फेंककर
वह मुस्कुरा दिया।

मुमकिन है अब
टूटी हुई बात का बनना।
(तारीफ का अखबार, पृष्ठ-28)
ऋतु की कविताओं में उनका मन, घर-परिवार, स्कूल, बच्चे, समाज, देश-दुनिया और बदलते घटनाक्रम के साथ कल्पनाओं का एक ऐसा संसार है जिसमें वे इस पूरी दुनिया को अपनी नजर से देखती हैं। उनकी मानवीय संवेदनाओं में प्रेम एक स्थाई घटक है जो मोह और निर्मोह रूपी दो छोर बिंदुओं के मध्य नृत्य करता है। उनका अपने आस-पास के पूरे परिवार्यण को संवेदना के साथ देखना और अपनी निजता को बना कर देखना प्रभावशाली है। यहां उनकी मौलिकता स्वयं को समय के भीतर रखते हुए देखे गए दृश्यों को नए ढंग से देखने में भी है। जैसे उदाहरण के लिए यह छोटी-सी कविता देखें-
आकाश के सीने पर
सूरज ने लिखा

‘सुबह’
तभी रात
अचानक फिसलकर
नदी में गिर गई।
(सुबह, पृष्ठ-70)
संग्रह की कविताएं दो खंड़ों- ‘मैं समय के भीतर’ और ‘हम स्त्रियां’ में विभक्त हैं। ऋतु के यहां स्त्री किसी रूढ़ या परंपरावादी रूप में नहीं वरन वह आज के समय के साथ चलने वाली और कहें मन में समय को भी पीछे छोड़ने का हौसला-हिम्मत लिए हुए है। समाजिक रीति-रिवाज, मर्यादाओं का अपना महत्त्व है किंतु यहां उन्हें किसी बंधन या रूढ़ी की बजाय आधुनिकता के साथ विकसित और परिष्कृत रूप में सम्मान दिया गया है। मानवीय भावनाओं में प्रेम प्रमुख है किंतु वह अपने विशद और व्यापक रूप में इन कविताओं में अभिव्यक्त होता है।
लड़का दुखी था
प्रेम की गहरी खाई में कूदने वाली लड़कियां
अब नहीं मिलती।

प्रेम की कसमों को अपने संदूक में छिपा कर
रखने वाली लड़कियां भी अब नहीं मिलती।

लड़का शायद नहीं जानता
कि लड़कियां समझ गईं है रिश्तों का गणित
बाजार के गणित से अलग नहीं होता।
(दुखी लड़क, पृष्ठ-86)
बाजार और समय के गणित को समझती-समझाती कविताएं बहुत कुछ कहती हैं-
समय उसके सामने
महीन तार पर झूल रहा था।

वह उसे रोज देखती
और सोचती कहां जाएगा ये?
मेरा ही तो है
उतार लूंगी एक दिन

पर आज
महीन तार टूट गया

नीचे उसका समय घायल पड़ा था।
(समय, पृष्ठ-101)
अपने समय के अनेक संदर्भों को समेटती और हमें समय के महत्त्व में परिवृत्त को दिखाती इन कविताओं में उन स्त्रियों के जीवन को गहराई से रेखांकित किया है जो परस्पर कपड़ों, रिश्तों, शारीरिक बुनावट आदि अनेक विषयों पर बेखोफ चर्चाएं करती हैं और वे इन चर्चाओं में भूल जाती है कि उन सबके गाल पर तिल-सा चिपका है एक आंसु। ऋतु की इन कविताओं में जीवन की तमाम ताम-झाम के बीच एक आंसु को भी देखने की क्षमता और तलाश रेखांकित किए जाने योग्य है। इस यात्रा का सांकेतित वर्णन इन पंक्तियों में देख सकते हैं-
वह हंसा और जोरदार हंसा
उसने फिर हवा में हाथ लहराया
मुझ पर कुछ शब्द फिर बिखर गए
और अब मैं उसके पीछे-पीछे चल रही थी
वह मेरे आगे-आगे हंसता हुआ चल रहा था
मैं दौड़ रही थी उसके पीछे
बद-हवास... बद-हवास... बद-हवास।
( शब्दों का जादूगर, पृष्ठ-111)
कविताओं के विषय में आरंभ में कवि मायामृग ने अपनी टिप्पणी में लिखा है-
“समय की पहचान है इसमें, पढ़ लीजिए, ये कविताएं समय की धुन पर हैं और समय के साथ चलते हुए सामने देखने की नजर देती हैं।”
और अंत में यही कि इन कविताओं में एक नया स्वर है जो निश्चय ही समकालीन स्त्री कविता की उपलब्धि कहा जाएगा। क्यों कि इन कविताओं में एक स्त्री स्वर को आत्मविश्वास से लबरेज देखा जा सकता है-
इस बार मैं ही करूंगी
युद्ध की मुनादी
और संधि का प्रस्ताव
निश्चय ही तुम्हारा होगा।
(इस बार, पृष्ठ-132)
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समय की धुन पर (कविता संग्रह) डॉ. ऋतु त्यागी
संस्करण : 2019, पृष्ठ : 136, मूल्य : 150/-
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर 

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(2) 

“कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी” डॉ. ऋतु त्यागी का पहला कविता-संग्रह है। वर्तमान समय के जटिल दौर में जब व्यक्ति संवेदनहीन होता जा रहा है, भाषा से उसके अर्थ कूच करते चले जा रहे हैं, स्वार्थ, संशय और संदेह के बीच यदि यथार्थ के कठोर घरातल पर हमें हमारे लापता ख़्वाबों का पता मिल जाए या उनकी ख़्वाबों की वापसी का अहसास भी हो जाए तो कह सकते हैं कि संवेदनाओं की नदियों में प्रवाह की भरपूर संभावनाएं हैं। सूखती संवेदनाओं के बीच कविता के पास उसकी भाषा ही होती है जिसके द्वारा कोई रचनाकार सुप्त और सुप्त होती संवेदनाओं को जगाता है। यह जागना-जगाना तब घनीभूत होता है जब कलम किसी स्त्री-मन का स्पर्श पाती है। मन तो मन होता है, मन के स्त्री-पुरुष आदि विभेद फ़क़त कुछ सीमाएं हैं जिन्हें आलोचना ने अपनी सुविधा से निर्मित किया है। कविता अथवा लेखन इन आवृतों से निरपेक्ष रहते हैं और रहने भी चाहिए।
इस संग्रह में न केवल कवयित्री डॉ. ऋतु त्यागी के कुछ लापता "ख़्वाबों" की वापसी है वरन यह कृति स्वयं उनकी साहित्य में वापसी है। करीब डेढ़ दशक से अधिक समय हुआ जब वे साहित्य में सक्रिय थीं और कहना होगा उनका युवा रचनाकार के रूप में सार्थक हस्तक्षेप रहा था। इस यात्रा के सतत न रहने अथवा होने के कुछ कारण इन कविताओं में देखे-समझे जा सकते हैं। संग्रह की कविताओं में अगर उनका रचनाकाल दिया जाता तो इन पड़ावों को समय के साथ देखा-समझा जा सकता था, पर कविता अथवा साहित्य व्यक्ति अथवा रचनाकार से मुक्ति होता हुआ अपने भीतर जन-जन की अनुभूतियों का स्वर सहेजता है तभी उसका होना सार्थक होता है।
इस कविता संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए अनेक जगह हम थम से जाते हैं कि फिर फिर उन अनुभूतियों में जाने का मन करता है। जो कविताओं में घटित होता है वह जीवन फिर फिर मोहित करे तो यह इन कविताओं की विशेषता और विशिष्ठता भी है। संग्रह की पहली और शीर्षक कविता में कवयित्री की इन पंक्तियों को देखें-
यदि बचपन सरपट रेलगाड़ी की तरह ना दौड़ता
तो हो सकता था
कि मेरे ख़्वाब लापता होने से बच जाते
पर बचपन में तो बचपना था
दौड़ पड़ा और हमें पटक दिया दुनियादारी की उम्र में
सो हम भूल गए कि हमने अपने ख़्वाबों से कुछ वायदे किए थे
पर वायदे तो जैसे काँच के थे
समय के साथ टूटकर गिरने लगे। (पृष्ठ-11)
समय की गतिशीलता के साथ अनेकानेक परिवर्तनों के रेखांकन ऋतु की कविताओं में बचपन से गृहस्ती के बीच विभिन्न स्मृतियों के गलियारों में उड़ान भराता एक निर्दोष मन है जिसमें जीवन की सुकोमल भावनाओं, संवेदनाओं और आत्म को बचाने की यथार्थपरक चेतना है। इन कविताओं के भीतर धड़कता कवि-मन जीवन के ऐसे घागों में अपने पाठकों को बांधता जाता है कि पाठक खुद-ब-खुद बंधता चला जाता है। कवयित्री ने इन कविताओं में विभिन्न जीवनानुभूतियों-स्थितियों को उनके घरातल से उठाते हुए उन्हें शब्दों के माध्यम से जिन नए बिम्ब-रूपों से प्रस्तुत किया है वे कहीं हमारे भीतर अन्तस में हलचल का कारण बनते जाते हैं। यहां कवयित्री के कुछ लापता ख़्वाबों की ही वापसी नहीं वरन पाठकों के ख़्वाबों की भी वापसी के अनेक मार्ग नजर आते हैं।
'फ़ुर्सत के लम्हों की रेसिपी' जैसी अनेक कविताओं में जिस अमूर्त को मूर्त में ढालते हुए कल्पनालोक में ले जाने का प्रयास है वह न केवल नवीनता के कारण प्रभावित करता है वरन यहां पाठक को एक अनजाने अनदेखे लोक और अनछुए पहलुओं की यात्रा का विकल्प मिलता है। कविताएं हमे एक लोक से दूसरे लोक यानी उसके स्वयं के लोक में यात्रा के लिए ले जाने में सक्षम और समर्थ है।
घर-परिवार के अनेक संबंधों के बीच कवयित्री का मन एक लड़की से स्त्री की जीवन-संघर्षों उसकी यात्रा के भीतर यात्रा के विविध अनुभवों का निरूपण करती है। संग्रह की अनेक कविताओं में कथा के रास्ते से गुजरते हुए भी कवयित्री कविता को उसकी अपनी शर्तों पर संभव बनाती है। ‘मेरी उलझनों’ कविता देखें-
मेरी उलझनों
रूई के गोले सी हो जाओ
कोई हवा आए
तो तुम्हें उड़ा कर दूर ले जाए
या तुम मेरी आँखों की नींद बन जाओ
कोई रात आए
जो तुम्हें सुला कर दूर... निकल जाए।
हाँ! ऐसा भी हो सकता है
कि तुम मेरी हथेली पर
रेखा बनकर चिपक जाओ
जिसे मैं मिटाने की
ता-उम्र कोशिश करती रहूँ। (पृष्ठ-32)
कोई रचना जब अनुभूति और विचार से जन्म लेती है तब वह आत्मा का गीत बन जाती है। इसमें सतत संघर्ष और जिस जीजीविषा के दर्शन होते हैं वे जनमानस को प्रेरित करते हैं।
“मैं हमेशा जीना चाहती हूँ
या इस कोशिश में मरना
कि जिंदा रहने के मायने
किसी भी हर उस चीज से बड़े हैं
जो हर एक आदमी के सामने
एक शुत्र की तरह आकर खड़े हो जाते हैं।” (पृष्ठ-106)
जीवन अपने आप में एक ऐसा गणित है जिसे हर कोई समझने-समझाने का प्रयास कर रहा है या कहें कि करता रहा है और ऐसे प्रयास होते रहेंगे। जीवन में कविताएं नितांत निजी होते हुए भी अपने बिंबों-प्रतीकों के साहरे जीवन के पर्यावरण से जुड़ती हुई जीवन की व्यापकता और विशालता का यशोगान करती है। कविता जीवन में हमारे संवादों, विचारों और गुप्त मंत्रणाओं में संभव होती हैं। बहुत सारी कविताओं को किसी व्यवस्था अथवा क्रम में बांधना उनकी क्षमताओं-सीमाओं को कम करना होता है। किसी कवयित्री के पहले संग्रह में अनुभवों की व्यापकता के साथ अपने निजी बिंबों-प्रतीकों के द्वारा एक नई काव्य-भाषा का निर्माण सुखद और सराहनीय कहा जा सकता है। एक कविता ‘सिसकती रातें’ देखें-
सिसकती रातों के सफर पर
निकलने से बचना
आँखें सूजकर गोलगप्पा हो जातीं हैं
और छाती धड़धडाती रेलगाड़ी
पलकों से बे-सब्र आशिक से
रिसते हैं आँसू
और कम-बख्त नींद
गिलहरी-सी
भाग जाती है सरपट। (पृष्ठ-12)
यहां स्थितियों और अनुभूतियों का बिना किसी निषर्क के कविता में प्रस्तुत करना और वह भी अपनी भाषा के प्रति सजगता-सावचेती के भाव से कि टटकापन निखर निखर जाता है। संग्रह के लिए डॉ. ऋतु त्यागी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

डॉ.नीरज दइया 

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