श्रीलाल शुक्ल जी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के समाचार का शीर्षक “उम्र के इस पड़ाव पर खास रोमांचित नहीं करता पुरस्कार- श्रीलाल” पढ़कर प्रेम जनमेजय जी का मन तत्काल फोन करने का हुआ किंतु वे यह सोचकर रुक गए कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। किंतु वे अधिकर देर नहीं रुक सके और उनसे उनका संवाद हुआ, परिणाम श्रीलाल शुक्ल जी ने रोमांच नहीं होने के विषय में कहा- “ऐसा नहीं प्रेम जी, ऐसे पुरस्कारों से संतोष अवश्य होता है। इस उम्र में अक्सर साहित्यकारों को उपेक्षित कर दिया जाता है। यह पुरस्कार संतोष देता है कि मैं उपेक्षित नहीं हूं।’ यह उनका प्रेमजी से अंतिम संवाद था। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि प्रेम जनमेजय जी ने पूरी ईमानदारी से प्रस्तुत विनिबंध में अनेक स्थलों पर सप्रमाण अपनी बात कहने का प्रयास किया है। पुस्तक का आरंभ ‘आरंभ’ शीर्षक के आलेख से होता है जिसमें एक युवा लेखक का अपने वरिष्ठ रचनाकार के प्रति सम्मान है वहीं विभिन्न कथनों के आलोक में श्रीलाल शुक्ल के लेखक मन की पड़ताल भी है। ‘जीवन यात्र के पदचिह्न’ में जन्म से लेकर निधन तक के पूरे घटनाक्रम में श्रीलाल शुल्क के लेखक के साथ घर-परिवार-समाज के जीवन में उनके दृष्टिकोण के साथ आत्मीयता को भी रेखांकित किया गया है। इस कृति के माध्यम से हम हमारे समय के वरिष्ठ लेखक की जीवन शैली और दिनचर्या के साथ विचारधार और प्रतिबद्धता का भी अंदाजा लगा सकते हैं। इसी अध्याय को अधिक गंभीरता से ‘दृष्टिकोण’ में स्पष्ट किया गया है कि एक लेखक किस प्रकार से अपने साहित्य समाज में किन-किन और कैसे-कैसे संघर्षों के साथ आगे बढ़ता चला जाता है।
श्रीलाल शुक्ल के प्रसिद्ध उपन्यास ‘राग दरवारी’ के पहले उनके रचनाक्रम और संघर्ष को ‘आरंभिक रचना-यात्रा’ आध्याय में रेखांकित किया गया है वहीं ‘राग दरबारी युग का रचना-समय’ में यह सिद्ध करने का उपक्रम है कि किस प्रकार एक रचना अपने पुरस्कार के बाद विचारधाराओं को परिवर्तित कर केंद्र में स्थापित हो जाती है। राग दरबारी का अपना एक युग रहा है और रहेगा, उसका भी विस्तार से विवरण और व्यंग्य-यात्रा के अंक का उल्लेख द्वारा प्रेम जनमेजय जी के हवाले उपन्यास विषयक अनेक नवीन तथ्य और जानकारियां यहां है। विनिबंध में न केवल राग दरबारी वरन श्रीलाल शुक्ल जी के समग्र उपन्यास साहित्य का आंशिक परिचय और रचनाओं की केंद्रीय भावभूमि को स्पष्ट किया गया है। श्रीलाल शुक्ल के कहानी-संग्रहों, व्यंग्य-संग्रहों और अन्य विधाओं में उनके अवदान को विनिबंधकार ने बिंदुवार रेखांकित किया है। ‘उपसंहार’ में पूरी चर्चा को समेकित करते हुए श्रीलाल शुक्ल के भारतीय साहित्य में योगदान के विभिन्न स्तरों को उल्लेखित किया गया है। यहां विशेष बात यह भी कि हम इस कृति के माध्यम से प्रेम जनमेजय जी अपने प्रिय लेखक श्रीलाल शुक्ल के समग्र साहित्य के विशद अध्ययन का आस्वाद कराते हैं। यहां उनके व्यक्तिगत चिंतन, मनन के आलोक में तथ्यों को लेकर स्पष्टता भी प्रभावित करती है। अनेक वरिष्ठ और समकालीन लेखकों के विभिन्न कृतियों और प्रसंगों पर कथनों के माध्यम से हम जिस श्रीलाल शुक्ल लेखक की पहचान करने में सक्षम होते हैं निसंदेह वह पहचान हमारी पूर्ववर्ती पहचान को दृढ़, समृद्ध और परिपक्क्व बनाती है। किसी विनिबंध की सफलता यही होती है कि हम हमारे परिचित रचनाकार को समग्रता में जानने का अवसर प्रदान करे।
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भारतीय साहित्य के निर्माता : श्रीलाल शुक्ल / प्रेम जनमेजय
साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली
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- डॉ. नीरज दइया
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