पुस्तक के आरंभ में कवि सुधीर सक्सेना की काव्य-यात्रा पर प्रकाश डालती सुधी आलोचक ओम भारती की विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका है। साथ ही वरिष्ट कवि-आलोचक नरेन्द्र मोहन का कवि सुधीर सक्सेना की काव्य-साधना पर एक पत्र पुस्तक में ‘मंतव्य’ के अंतर्गत दिया गया है। इससे यह पुस्तक शोधार्थियों और सुधी पाठकों के लिए विशेष महत्त्व की हो गई है। कविता-यात्रा के विविध पड़ावों पर यह गंभीर अध्ययन-मनन कविताओं के विविध उद्धरणों के माध्यम से नवीन दृष्टि और दिशा देने वाले हैं। इन आलेखों में जहां कवि के साथ अंतरंग-प्रसंगों को साझा किया गया है वहीं समकालीन कविता और सुधीर सक्सेना की कविता को लेकर विमर्श में हिंदी कविता में सुधीर सक्सेना का योगदान भी रेखांकित हुआ है। संग्रह में संकलित कविताओं में जहां कवि के काव्य-विकास और संभावनाओं की बानगी है, वहीं उनके सधे-तीखे तेवर और निजता में अद्वितीय अभिव्यंजना का लोक भी उद्घाटित हुआ हैं। इसी को संकेत करते ओम भारती लिखते हैं- ‘सुधीर की कविता बरसों का रियाज, सधे-सुरों और सहज आलाप समेटती पुरयकीन कविता है। इसमें व्यंजना का रचाव है,तो लक्ष्णा का ठाठ भी है।’
संकलित कविताएं वर्तमान जीवन के यथार्थ-बोध के साथ कुछ ऐसे अनुभवों और अनुभूतियों का उपवन है जिसमें हम उनकी विविध पक्षों के प्रति सकारात्मकता, सार्थकता और आगे बढ़ने-बढ़ाने की अनेक संभवनाएं देख सकते हैं। कविताओं में कवि की निजता और अंतरंगता में प्रवाह है तो साथ ही पाठक को उसके स्तर तक पहुंच कर संवेदित करने का कौशल भी है। वे कविताओं के माध्यम से जैसे एक संवाद साधते हैं। कविताओं में कवि की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति से अधिक उल्लेखनीय उनकी सहजता, सरलता और सादगी में अभिव्यंजित होती विचारधारा है। जिसके रहते वे विषय और उसके प्रस्तुतीकरण के प्रति सजग-सचेत और हर बार नई भंगिमाओं की तलाश में उत्सुकता जगाते हुए अपने पाठकों को हर बार आकर्पित करते हैं। ‘कुछ भी नहीं अंतिम’ संग्रह के नाम को सार्थक करता यह संकलन अपनी यात्रा में बहुत बार हमें अहसास करता है कि सच में कवि के लिए कविता का कोई प्रारूप अंतिम और रूढ़ नहीं है। ‘समरकंद में बाबर’ के प्रकाशन के साथ ही हिंदी कविता में सुधीर सक्सेना को बहुत गंभीरता से लिया जाने लगा। वे जब ईश्वर के विषय में फैले अथवा बने हुए संशयों को कविता में वाणी देते हैं तो अपने अंतःकरण के निर्माण में अपने इष्ट मित्रों और साथियों की स्मृतियों-अनुभूतियों को भी खोल कर रखते हैं। ‘ईश्वर- हां... नहीं... तो’ और ‘किताबें दीवार नहीं होती’ जैसे संग्रहों की कविताएं सुधीर सक्सेना को हिंदी समकालीन कविता के दूसरे हस्ताक्षरों से न केवल पृथ्क करती है वरन यह उनके अद्वितीय होने का प्रमाण भी है। प्रेम कविताएं हो अथवा निजता के प्रसंगों की कविताएं सभी में उनकी अपनी दृष्टि की अद्वितीयता प्रभावशाली कही जा सकती है। ये कविताएं कवि के विशद अध्ययन-मनन और चिंतन की कविताएं हैं जिन में विषयों की विविधता के साथ ऐसे विषयों को छूने का प्रयास भी है जिन पर बहुत कम लिखा गया है। कवि को विश्वास है- ‘वह सुख/ हम नहीं तो हमारी सततियां/ तलाश ही लेंगी एक न एक दिन/ इसी दुनिया में।’ वे अपनी दुनिया में इस संभावना के साथ आगे बढ़ते हैं।
‘धूसर में बिलासपुर’ लंबी कविता इसका प्रमाण है कि किसी शहर को उसके ऐतिहासिक सत्यों और अपनी अनुभूतियों के द्वारा सजीव करना सुधीर सक्सेना के कवि का अतिरिक्त काव्य-कौशल है। कविता की अंतिम पंक्तियां है- ‘किसे पता था/ कि ऐसा भी वक्त आयेगा/ बिलासपुर के भाग्य में/ कि सब कुछ धूसर हो जायेगा/ और इसी में तलाशेगा/ श्वेत-श्याम गोलार्द्धों से गुजरता बिलासपुर/ अपनी नयी पहचान।’ अस्तु कहा जा सकता है कि जिस नई पहचान को संकेतित यह कविता है वैसी ही हिंदी कविता यात्रा की नई पहचान के एक मुकम्मल कवि के रूप में सुधीर सक्सेना को पहचाना जा सकता है।
अच्छा होता कि इस संकलन में संग्रहों और कविताओं के साथ उनका रचनाकाल भी उल्लेखित कर दिया जाता जिससे हिंदी कविता के समानांतर सज्जित इन कविता यात्रा को काल सापेक्ष भी देखने-परखने का मार्ग सुलभ हो सकता था। साथ ही यहां यह भी अपेक्षा संपादक से की जा सकती है कि वे अपना और कवि का एक संवाद इस पुस्तक में देते अथवा कवि सुधीर सक्सेना से उनका आत्मकथ्य इस पुस्तक में शामिल करते। इन सब के बाद भी यह एक महत्त्वपूर्ण और उपयोग कविता संचयन कहा जाएगा। सुंदर सुरुचिपूर्ण मुद्रण और आकर्षक प्रस्तुति से कविताओं का प्रभाव द्विगुणित हुआ है।
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111 कविताएँ / कवि : सुधीर सक्सेना चयन एवं संपादन : मजीद अहमद प्रकाशक- लोकमित्र, 1/6588, पूर्व रोहतास नगर, शाहदरा, दिल्ली पृष्ठ : 224 मूल्य : 395/- संस्करण : 2016
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