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बाल मनोविज्ञान से जुड़ी कहानियां / डॉ. नीरज दइया

बच्चों की दुनिया में गुड़िया को लेकर एक अलग प्रकार का आकर्षण रहता है। यह आकर्षण भले उम्र के साथ धीरे-धीरे कम हो जाए किंतु हम बड़े भी मरते वक्त तक इस आकर्षक से कहीं न कहीं बंधे रहते हैं। हमारा प्रेम इस शब्द में कहीं समाहित है। शायद यही कारण है कि बेटियों के लिए भी गुड़िया शब्द का प्रयोग समाज में रहा है। गुड्डा और गुड़िया बालमन को मोहित करने वाले उपादान हैं और वरिष्ठ बाल साहित्यकार शीला पांडे ने अपने बाल कहानी-संग्रह का नाम रखा है- ‘सांची की गुड़िया’। इस संग्रह में बाल मनोविज्ञान से जुड़ी पंद्रह कहानियां हैं। इस संग्रह में बाल मनोविज्ञान से जुड़ी पंद्रह कहानियां हैं। लेखिका ने संग्रह में ‘मन की बात’ के अंतर्गत लिखा है- ‘जीवन-जंतु, मानव, पर्यावरण आदि के प्रति बच्चों को संवेदनशील बनाने तथा जीवन के प्रति समझ और सही सोच विकसित पैदा करना इन कहानियों का उद्देश्य है।’ इस कथन के आलोक में संग्रह की कहानियों को देखा जाना चाहिए।
            शीर्षक कहानी ‘सांची की गुड़िया’ में रिया और सांची के माध्यम से बालकों को मन की सच्ची सुंदरता और बुद्धिमानी की शिक्षा देने का प्रयास किया गया है, वहीं ‘मेहनत की मिठास’ और ‘वेदांश’ जैसी कहानियों के कथ्य से जिस सहजता-सरलता से शिक्षा स्वतः अभिव्यक्त होती है वह अधिक प्रभावशाली लगती है। तीसरी कक्षा के विद्यार्थी आयुष और सार्थक को उनकी रमन मैम द्वारा सौंपे गए छोटे-मोटे कामों में जिस जिम्मेदारी और जबाबदेही को सही ढंग से निर्वाह किए जाने का कथानक वर्णित किया गया है, जो नाटकीय ढंग से कहानी में बहुत सहजता-सरलता से प्रस्तुत हुआ है और अपने उद्देश्य की पूर्ति करता है। बाल मन ऐसी सहज और सच्ची प्रतीत होने वाली कहानियों से गहरे तक प्रभावित होते हैं। ‘वेदांश’ कहानी में वेदांश नामक छात्र को नायक के रूप में रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है, कहानी में दैनिक विज्ञान से जुड़े कुछ सवाल-जबाबों को इस प्रकार गूंथा गया है कि कहानी अपनी रोचकता के साथ कुछ सवालों का जबाब भी बन गई है। इस कहानी में लेखकीय कौशल से कहानी में प्रतियोगिता का आयोजन हुआ है और सीधे-सीधे प्रश्नोत्तर भी कहानी का हिस्सा बन गए हैं।    

            बालकों के लिए लिखते समय यह बड़ी चुनौति रहती है कि हम कोई नई बात शिक्षा के रूप में प्रस्तुत भी करें और वह सीधे-सीधे शिक्षा और उपदेश के रूप में नहीं वरन सरलता-सहजता से कहानी के कथ्य का हिस्सा बनते हुए प्रस्तुत हो। उदाहरण के लिए पेड़ का एक पर्यावाची ‘हरितराज’ है जिसे कहानी ‘नदी कहती थी’ में शीला पांडे ने बड़े कौशल से प्रयुक्त करते हुए इसके साथ अनेक तथ्यों को कहानी में समाहित किया है। नदी कहती थी में जल संकट और आज के पर्यावरण के साथ नदियों के संकट को स्पर्श करने का उम्दा प्रयास है। कहानी में कछुआ, मछली, नाव और पेड़ के संवाद से बहुत कुछ कहा गया है किंतु बेहद कौशल के साथ छोटे-छोटे वाक्यों और सरल शब्दों के प्रयोग में इसका निर्वाहन किया गया है, जो अन्य रचनाकारों के लिए प्रेरक कहा जा सकता है।
            ‘भूरा और भूरी’ कहानी में मीनू बकरी के दो बच्चों भूरा और भूरी के माध्यम से बच्चों को अकेले बाहर नहीं जाने और बड़ों का कहना मानने का संदेश अभिव्यक्त हुआ है, वहीं ‘अनुभूति’ कहानी में पर्यावरण के प्रति हमारे बालकों की जिम्मेदारी को सुंदर ढंग से रचा गया है। अनुभव मौज-मस्ती करने वाला बड़ा बेफिक्र बच्चा था किंतु कहानी के अंत तक पहुंचते हुए वह इस रूप में बड़ा हो गया है कि पेड़ों को भी किसी को काटने नहीं देता। वह नए पेड़-पौधे लगाने के लिए दूसरों को प्रेरित करने लगा है। इसी भांति ‘पेड़ और पक्षी’ कहानी में वरुन का पर्यावरण के प्रति सजग होना और ‘अमन की खोज’ में सांप्रदायिक सद्भाव को लेकर चेतना के लिए लेखिका ने प्रयास किया है। छोटे, मध्यम और कुछ बड़े आकार की इन कहानियों में बच्चों की रूपहली दुनिया है और इन सब में बाल मन की अभिव्यक्ति के साथ लेखिका का अपना नजरिया और चीजों को देखने दिखाने का रंग-ढंग भी है। कहीं कहीं अधिक कहने के उत्साह में वे कहानी को ब्यौरों से भर देती हैं पर जहां-जहां उन्होंने वाल पाठकों की समझ और ग्रहणशीलता पर विश्वास किया है वहां-वहां वे सफल रही हैं।
            मुद्रण और लेआउट की बात करें तो बेहद आकर्षक आवरण और भीतर की साज-सज्जा में रंगीन चित्रों से रजी यह किताब निसंदेह बाल पाठकों को मोहित करने वाली है। बाल साहित्य की पुस्तकों में भाषा और वर्तनी का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि पुस्तक सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार के प्रकाशन विभाग विभाग से प्रकाशित है तो उनकी पाठकों के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है। ‘हिमांशु का बाल भी नहीं कट पाया था।’ (पृष्ठ-51) के स्थान पर ‘हिमांशु के बाल भी नहीं कट पाए थे।’ होना चाहिए था। इसी भांति इसी पृष्ठ पर एक शब्द ‘चाबी’ के चाबी और चाभी दो वर्तनीगत प्रयोग हुए हैं। शब्दों के मामले में शुद्धता और समरूपता का निर्वाह किया जाना चाहिए। पर किताब की सुंदरता को देखते हुए कुछ प्रूफ की भूलों को नजरअंदाज किया जा सकता है। जैसे- अनेंकों (पृष्ठ-46), पूंछे (पृष्ठ-47) और आर्शीवाद (पृष्ठ-79) आदि। अनेक स्वयं एक का बहुवचन है और बहुवचन का बहुवचन नहीं होता। इसी प्रकार ‘आशीर्वाद’ शब्द लिखने में बहुधा त्रुटि होती है, इससे बचा जाना चाहिए। समग्र रूप से इसे एक मनोरंजक और शिक्षाप्रद कहानी संग्रह कहा जा सकता है।     

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पुस्तक : सांची की गुड़िया (बाल कथा-संग्रह)
लेखिका : शीला पांडे
प्रकाशक  : प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, सूचना भवन, सी.जी.ओ. कॉम्पलेक्स, लोदी रोड, नई दिल्ली- 110003
संस्करण : 2018 (द्वितीय), पृष्ठ : 80, मूल्य : 110/-

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 डॉ. नीरज दइया

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