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एक उजाला किसी बड़े सपने जैसा / डॉ. नीरज दइया

 हिंदी व्यंग्य के क्षेत्र में पूरन सरमा एक बड़ा नाम है, उनकी मूल विधा व्यंग्य है। वे व्यंग्य के अलावा उपन्यास और नाट्य विधा में भी सक्रिय रहे हैं किंतु ‘सद्भाव का उजाला’ उपन्यास पढ़कर लगता है कि उनका बाल साहित्य के प्रति यह मानसिक दायित्व-बोध है जिसके रहते उन्होंने इसे लिखा है। सामाजिक विसंगतियों और बाल मनोविज्ञान को जनना-समझना दो अलग-अलग विषय है। व्यंग्य और बाल साहित्य के मूल उद्देश्यों में हम सामाजिक सद्भाव की स्थापना को प्रमुख मानते हैं। सद्भाव के लिए ही लेखक कलम चलाता है और निसंदेह बहुत सद्भाव और सभी रचनाओं-रचनाकारों के प्रति आदर के साथ समीक्षा और आलोचना को अपना दायित्ब निभाना होता है।
    उपन्यास का आरंभिक अंश देखिए- ‘सबुह नितिन की आंख खुली तो घर भर में सन्नाटा था। पापा-मम्मी दोनों के चेहरे सहमे हुए थे। एक बार तो उसे लगा कि कहीं कोई बात है। परंतु फिर वह अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। नाश्ते के बाद कपड़े पहन कर बाहर जाने को हुआ तो मम्मी ने टोका- कहां ज रहे हो, नितिन?’ यहां तक तो सब ठीक है किंतु इसके वाद इसका रहस्य कि बालक नितिन अपने दोस्त अहमद के घर सुबह सुबह दैनिक दिनचर्या से निपट कर जा रहा है और उसकी मम्मी उसे आज घर के बाहर नहीं जाने का अदेश देती है। बाल सुलभ सवाल कि लेकिन क्यों? जिसका जबाब उसे मिलता है कि बाहर कर्फ्यू लगा हुआ है- ‘हां, कर्फ्यू। कल रात को सम्प्रदायों में हुए झगड़े के बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे तथा कर्फ्यू लगाना पड़ा है और सुनो तुम अब अहमद से अपनी दोस्ती भी कम कर दो। दोनों सम्प्रदायों में कट्टरता इस कदर बढ़ गयी है कि दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं।’ मम्मी ने कहा।
    बाल साहित्य को लेकर एक समस्या यह भी है कि उसके पाठक वर्गों में अलग अलग आयु में उनका मानसिक स्तर अलग अलग होता है और बदलता रहता है। ‘सद्भाव का उजाला’ उपन्यास का कथ्य और शैली से हम जान सकते हैं कि यह बाल उपन्यास नहीं वरन किशोर उपन्यास है। कर्फ्यू, दिनचर्या, संप्रदाय, कट्टरता और एक दूसरे के खून के प्यासे की मानसिकता समझने समझाने वाला आयुवर्ग किशोर ही होता है अथवा यहां यह भी कहा जा सकता है कि वर्तमान परिस्थितियों में बढ़ती तकनीक और आधुनिकता ने बालकों का बचपन छीन कर उन्हें बहुत जल्दी किशोर बना दिया है। एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि वे अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही जल्द समझ कर समय रहते बचपन छोड़ दे तो बेहतर है। बचपन का आनंद और किशोर जीवन की जटिलता दोनों भिन्न होती है। किशोर जीवन में भी आनंद होता है किंतु उसमें अनेक घटक समाहित होते हैं। यह समझदारी का ठेका जैसा उपन्यास में उपन्यासकार ने बच्चों को दिया है वे किशोर ही ले सकते हैं।
    परिवार का ताना बाना ऐसा होता है कि मां डांटती है तो पिता पुचकारते हैं और जब पिता डांटते हैं तो उन्हें मां अपने आंचल में छुपा लेती है और उनकी हर बात पर पर्दा डाल देती है। इस उपन्यास के पहले ही पृष्ट पर इसी तकनीक को प्रयुक्त किया गया है। पिता का कथन- ‘ठीक ही तो कह रहा है वह। अहदम से क्यों दोस्ती तोड़े। वही तो उसका जिगरी दोस्त है। तुम क्यों बच्चों को इधर-उधर की बातों में बहकाती रहती हो?’ (पृष्ठ- 7)
    कल रात के दंगे में मुख्य पात्र नितिन के दोस्त अहमद का घर जला दिया गया है। यह सब जानकारी अखबार से नितिन की मम्मी को मिली है और यहां आश्चर्य नितिन ने अखबार नहीं देखा है। चलिए कोई बात नहीं है बारह वर्ष का नितिन अखबार नहीं देखे तो हमें कोई ऐतराज नहीं है किंतु वह उपन्यास में यह कह रहा है ‘आप मुझे इतना अबोध क्यों समझती हैं मम्मी! मैं अब बड़ा हो गया हूं। सारी बते जानता-समझता हूं। मुझे पता है यह धार्मिक कट्टरता है तथा लोग एक-दूसरे के इसी कारण दुश्मन बन गये हैं।’ इसका अभिप्राय वह बहुत समझादार किशोर है। किशोरावस्था की आयु के विषय में भी मतभेद रहे हैं कोई इसे 10 वर्ष की आयु से 19 वर्ष तक की आयु तक मानते हैं तो कुछ मनोवैज्ञानिक इसे 13 से 18 वर्ष के बीच की अवधि मानते हैं। यह भी धारणा है कि यह अवस्था 24 वर्ष तक रहती है। भले किशोरावस्था को निश्चित अवधि की सीमा में नहीं बांधा जा सकता हो और अलग अलग बालक के लिए यह अलग अलग भी हो सकती है किंतु नितिन किशोर इसलिए भी है कि वह उपन्यास में ऐसे कारनामों को अंजाम देता है जिस पर सभी दांतों तले अंगुली दबाते हैं।
    उपन्यास में निति को उसके पिता कहते हैं- ‘नितिन, हमारे राष्ट्र का संविधान धर्मनिरपेक्ष है तथा यहां व्यक्ति को अपना धर्म मानने-पूजने की पूर्ण स्वतंत्रता है। यहां किसी पर यह दबाव नहीं होता है कि वह अमुक धर्म को माने या न माने। लेकिन राजनेताओं की गंदी राजनीति ने आदमी, आदमी के बीच धर्म की दीवार खड़ी कर दी है, ताकि वे अपना उल्लू सीधा कर सकें। मैं कहता हूं कि इस देश का पता नहीं क्या होगा?’ (पृष्ठ- 9) नितिन अपना दायित्व समझते हुए इस झूठी मानवता के विकास को नकार देता है और नई सदी में अपनी बर्बरताओं को छोड़ने के लिए उपन्यास में प्रयास कर सब कुछ सुधार देता है। उपन्यास में सद्भाव का एक उजाला जो नितिन द्वारा फैलाया गया है वह किसी बड़े सपने जैसा लगता है। वह अपनी मित्र मंडली के साथ वह सब कुछ संभव कर देता है जो असंभव लगता है और है भी असंभव। यहां दो सवाल कर सकते हैं कि क्या यह उपन्यास किशोर और बाल पाठकों को माता-पिता की बातों की अवहेलना करना सीखा रहा है अथवा एक काल्पनिक दुनिया में लेजाकर उनकी क्षमताओं का परिवृत निर्मित कर रहा है। दोनों ही स्थितियां खतरनाक है। यदि बालक किशोर अपने अभिभावकों अथवा सरकारी आदेश के विरूद्ध जाकर कुछ करेंगे तो क्या वह हितकर होगा। क्या किसी स्थान पर कट्टरता और धार्मिक द्वंद्व हो वहां बच्चों के कहने समझाने भर से माता पिताओं द्वारा समस्या का समाधान कर लिया जाएगा। सब कुछ लेखन के नितिन के माध्यम से संभव कर हैप्पी अंत कर दिया है।
    उपन्यास यथार्थ के धरातल पर परखने पर कपोल कल्पना सा लगता है और किसी को भी सहजता से यकीन करने वाली बातें यहां नहीं है। जिला कलेक्टर और मुख्यमंत्री महोदय तक को नितिन ने अपने जादू से सम्मोहित कर दिया इस उपन्यास में जो निसंदेह उल्लेखनीय है। काश हमारे समाज में ऐसे सपनों के द्वारा अच्छी सामाजिक व्यवस्था बनती। काश विकास कार्यों की बागडोर भी किशोर वर्ग के हाथों उनकी अगुवाई में हमारा समाज सौंप पाता। सच्चाई यह है कि हमारे समाज में धन, सत्ता और धर्म की बागडोर मरते दम तक अपने ही हाथों में थामे रखने वालों की बहुत बड़ी जमात है। ऐसी किसी जमात के सामने नितिन जैसे किशोर ना तो खुद खड़े होने का साहस कर सकते हैं और ना उनके परिवार उन्हें ऐसी इतनी छूट देने की हिम्मत दिखा सकते हैं। बाल मनोविज्ञान में यह काल्पनिकता लुभाने वाली जरूर है कि एक उजाला किसी बड़े सपने जैसा उपन्यासकार ने उनके सामने रखने का प्रयास किया है किंतु यहां जो कुछ सीखने की बात है वह बड़ी खतरनाक है। भाषा-शैली सब कुछ प्रभावित करती है और आंरभ भी बहुत अच्छा है किंतु इस मार्ग की परिणति ठीक नहीं कही जा सकती है। प्रकाशक ने चित्रकार को अधिक महत्त्व नहीं देकर चित्रों की कुछ व्यवस्था करने का प्रयास भर किया है, जो सराहनीय नहीं है। बाल और किशोर साहित्य में रचनाओं के साथ-साथ चित्रों और साज-सज्जा का भी पर्याप्त ध्यान दिया जाए तो बेहतर होगा।
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पुस्तक : सद्भाव का उजाला (बाल उपन्यास)
लेखक : पूरन सरमा
प्रकाशक  : वनिका पब्लिकेशन्स, एन ए- 168, गली नं.- 6, नई दिल्ली- 110018
संस्करण : 2019, पृष्ठ : 40, मूल्य : 80/-
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डॉ. नीरज दइया


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